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सुखबोधा टीका में आगत विशेषतायें :१. निर्देश, स्वामित्व आदि छह जो तत्त्वों को जानने के उपाय हैं उन छहों को
टोकाकार भास्करनन्दी ने प्रमाण और नयरूप माना है इस रूप मान्यता ग्रन्थांतर में उपलब्ध नहीं होती । टीका में इस प्रकार वाक्य हैं'सकल निर्दिश्यमानादि वस्तु विषयाः श्रुतज्ञान विशेषाः प्रमाणात्मकाः । तदेकदेशविषया नय विशेषात्मकाः । तैश्च निर्देशादिमिस्तत्त्वार्थाधिगमो भवति ॥'
[अ. १ सू. ७ ] २. सत्, संख्या, क्षेत्र आदि आठ अनुयोग द्वार जो कि तत्त्वार्थ अधिगम के उपायभूत
हैं इन्हें भी प्रमाण नयात्मक स्वीकार किया है'ते च सदादयः सकलादेशित्वाच्छ ताख्य प्रमाणात्मकाः विकलादेशित्वान्नयात्मकाश्च
भवन्ति' [ अ. १ सू. ८ ] ३. सर्वावधिज्ञान का विषय महास्कन्ध है
'तच्छब्देन सर्वावधिविषयस्य सम्प्रत्ययः स च कर्मद्रव्यस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो
भागोमहास्कन्ध उक्तो' [ अ. १. सू. २८ ] ४. अल्पश्रुत ज्ञानयुक्त मतिज्ञान को एक ज्ञानरूप माना
'एकं तावत्..."प्रकृष्ट श्रुतरहित मतिज्ञानं वा' तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिककार आचार्य विद्यानंद ने भी इस तरह का कथन किया है
[ अ. १ सू. ३० ] ५. अभ्यन्तर निवृत्ति को सूक्ष्म पुद्गल संस्थानरूप मानना
'अभ्यन्तरा चक्षुरादीन्द्रिय ज्ञानावरणकर्म क्षयोपशम विशिष्टोत्सेधांगुलाऽसंख्येय भाग
प्रमितात्म प्रदेश संश्लिष्ट सूक्ष्म पुद्गल संस्थानरूपा' [अ. २ सू. १७] ६. यथार्थ ग्रहणं ध्र वावग्रहः तद्विपरीत लक्षण: पुनरभ्र वावग्रहः ।
यथार्थ-वास्तविक ग्रहण को ध्रुवावग्रह कहते हैं और अयथार्थ ग्रहण को अध्रुव अवग्रह कहते हैं। इस प्रकार इनका कुछ पृथक्रूप यह लक्षण है जो सर्वार्थसिद्धि आदि से नहीं मिलता किन्तु आगे ध्रुवावग्रह और धारणाज्ञान अन्तर बतलाते समय सर्वार्थसिद्धि का लक्षण ग्रहण किया है । [अ. १ सू. १६]