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________________ ( १५) ज्ञान, दर्शन आदि निजी भाव हमेशा के लिए पूर्ण शुद्धरूप व्यक्त हो जाते हैं। आत्मा कर्मों से पृथक् होते ही ऊर्ध्वगमन कर जाता है और धर्म द्रव्य जहां तक है वहां लोकाकाश के अन्त में तनूवातवलय में सदा सदा के लिए अवस्थित हो जाता है । वहां अपने आत्मीक आनन्द सुख शान्ति में सदा मग्न, संसार के कष्ट-दुःख आपदा से रहित अचिन्त्य आत्म स्वभाव में तल्लीन होते हैं । यही एक हम सबको प्राप्य है, यही गंतव्य है, यही ध्येय है, यही साध्य है, यही निजी अवस्था है यही आनंद सुखमय अवस्था है। सिद्धों में भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा क्षेत्र, काल, गति इत्यादि अनुयोग द्वारा भेद करके कथन किया है । इस प्रकार यह टोका पूर्ण होती है। इसका प्रमाण पांच हजार श्लोक प्रमाण है । जैसा कि कहा है इति यः सुखबोधाख्यां वृत्ति तत्त्वार्थ संगिनीम् । षट् सहसां सहसोनां विन्द्यात् स मोक्षमार्ग वित् ।।१।। अपनी प्रशस्ति श्री भास्करनन्दी ने केवल तीन श्लोकों में दी है। इसमें अपने दादा गुरु के विषय में लिखा है कि जो न सोते हैं न थूकते हैं न किसी को आओ जाओ ऐसा कहते हैं। न द्वार बन्द करते हैं न खोलते हैं ऐसे महान् योगी हुए हैं जिन्होंने अन्त समय में संन्यासपूर्वक पर्यंकासन से प्राण त्याग किया था। उन योगीश्वर के शिष्य जिनचन्द्र हुए वे सिद्धांत पारंगत सुविशुद्ध सम्यग्दृष्टि थे उनका शिष्य मैं भास्करनन्दी पंडित ने यह तत्त्वार्थसूत्र की सुखबोध टीका रची है। यह पहले भी उल्लेख कर आये हैं कि इस ग्रन्थ के प्रणेता ने मूल सूत्रों के पदों का समास आदि रूप विश्लेषण करने में सर्वार्थसिद्धिकार का अनुसरण किया है । कहीं कहीं विषय प्रतिपादन में सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक का अनुकरण भी है। फिर भी इस टीका की अपनी विशेषता है ही। एक तो यह सरल सुगम शैली में है, तथा दूसरी विशेषता यह है कि सिद्धांत या तत्त्वों के प्रतिपादन में उन्हें जहां ग्रंथांतरों में कुछ विशेष मिले उनको अपनी टीका में सन्निहित किया है। आगे इस टीका में आगत विशेषतायें प्रस्तुत करते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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