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तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का कथन तथा अणुव्रतादि बारह श्रावकों के व्रतों के प्रत्येक के पांच पांच अतिचारों का कथन है । अन्त में ग्यारह प्रतिमायें वर्णित हैं ।
आठवां अध्याय:- मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बंध के हेतु हैं । मिथ्यात्व के तीन सौ त्रेसठ भेदों को बतलाकर गुणस्थानों में बन्ध हेतुओं को घटित किया है अर्थात् प्रथम गुणस्थान में मिथ्यादर्शनादि पांचों बन्ध के हेतु मौजूद हैं । दूसरे तीसरे तथा चौथे गुणस्थान में मिथ्यादर्शन को छोड़कर चार बन्ध हेतु हैं । पांचवें में एक त्रस विरति है अन्य सब अविरतियां हैं अतः विरति अविरति मिश्ररूप है प्रमाद कषाय और योग ये कारण है ही । छठे गुणस्थान में अविरति नहीं है प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्ध हेतु हैं । सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें तक कषाय और योग ये दो बन्ध हेतु हैं । ग्यारहवें से तेरहवें तक एक योगरूप बन्ध हेतु है । atai गुणस्थान बंध हेतु रहित निरासूव निर्बंन्ध है । प्रकृतिबन्ध, अनुभागबन्ध, स्थितिबन्ध और प्रदेशबन्ध ऐसे बन्ध के चार भेद बतलाकर कर्मों के उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस का वर्णन किया है । सभी कर्मों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति तथा अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध लक्षण किया है अन्त में पुण्य कर्म प्रकृतियां और पाप कर्म प्रकृतियां गिनायी हैं ।
नौवां अध्याय : – आसूव का रुकना संवर है वह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र द्वारा होता है । संवरों के इन सब कारणों का सुन्दर रीत्या वर्णन है । बाह्य और अभ्यन्तर तपों का वर्णन, ध्यान के सोलह भेद तथा उनके स्वामी का कथन किया गया है । असंख्यात गुण श्रेणीरूप से होने वाली निर्जरा के दश स्थान प्रतिपादित किये हैं । भावलिंगी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों के पुलाक आदि पांच भेदों का लक्षण और उनके संयम, श्रुत आदि का कथन अंत में पाया जाता है ।
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दसवां अध्याय : - मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से केवलज्ञान प्रगट होता है सम्पूर्ण बन्ध हेतुओं का अभाव और निर्जरा हो जाने पर कर्मों का आत्मा से सदा के लिए पृथक् हो जाना मोक्ष कहलाता है । आत्मा का अपने चैतन्य स्वरूप का लाभ मोक्ष है न कि परवादी कल्पित अभावादिरूप । औपशमिक आदि कर्मज भाव भी मोक्ष अवस्था में नहीं रहते । सम्यक्त्व,