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________________ ( १३ ) षष्ठ अध्याय – मन वचन और कायकी क्रिया योग कहलाता है और वही आस्रव है । विशुद्ध परिणाम हेतुक कायादि योग शुभ है और संक्लेश परिणाम हेतुक कायादि योग अशुभ है । आस्रव के साम्परायिक और ईर्यापथ ऐसे दो भेद हैं । कषाय युक्त जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है । ज्ञान दर्शन सम्बन्धी प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादना और उपघात ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मों के आस्रव हैं । दुःख, शोक, तापादि असातावेदनीय कर्म के, जीवदया, सरागसंयम धारण इत्यादि साता वेदनीय कर्म के आसूव हैं । धर्म आदि पर झूठा दोषारोपण अवर्णवाद है और इससे दर्शनमोह - मिथ्यात्व कर्म का आसूब होता है। तीव्र कषाय भाव चारित्र मोह कर्म का आसूव है । बहुत आरम्भ बहुत परिग्रह नरकायु के आसूव हैं । मायाचार तिर्यंचायु का, अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह मनुष्यायु का, सरागसंयम प्रभृति देवायु के आसूव हैं। योगों की कुटिलता और विसंवाद नहीं करना शुभनाम कर्म का आसूव है । दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनायें अचिन्त्य माहात्म्य वाले तीर्थंकर प्रकृति के आसूव हैं । ये जितने भी कारण कहे हैं वे अपने अपने कर्म प्रकृति में विशेष विशेष अधिक अनुभाग डालने में कारण हैं, उस वक्त अन्य कर्मों अनुभाग अल्प होता है, क्योंकि एक साथ एक जीव के ज्ञानावरणादि सात या आठ मूल कर्मों का बन्ध होता है ऐसा नियम है अब यदि विवक्षित समय में प्रदोष निह्नवादि है तो ज्ञानावरण कर्म में अधिक अनुभाग पड़ेगा अन्य कर्मों में अल्प होगा । जीव दया, व्रती अनुकम्पा आदि परिणाम हैं तो सातावेदनीय में अधिक अनुभाग होगा और अन्य कर्मों में अल्प अनुभाग होगा ऐसा ही सब कर्मों के कारणों के विषय में समझना चाहिए । 1 सातवां अध्याय-1 - हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरक्त होना व्रत कहलाता है | व्रतों के अणुव्रत और महाव्रत ऐसे दो भेद हैं । व्रतों की पच्चीस भावनायें मैत्री आदि चार भावनायें, हिंसा आदि का लक्षण उन सबका वर्णन कर पुनः
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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