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________________ २१२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती उक्त भ्योऽन्येऽवशिष्टाः सानत्कुमारादयः कल्पवासिन एव शेषा उच्यन्ते स्पर्शश्च रूपं च शब्दश्च मनश्च स्पर्शरूपशब्दमनांसि । तेषु तैर्वा प्रवीचारो येषां देवानां ते स्पर्शरूपशब्दमन: प्रवी चाराः । पुन: प्रवीचारग्रहणमिष्टसंप्रत्ययार्थम् । तच्चेष्ट मागमाविरोधेन योजनम् । कथमिति चेदुच्यतेसानत्कुमारमाहेन्द्रयोर्देवा देव्यश्च स्पर्शप्रवीचाराः । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु रूपप्रवीचाराः । शुक्र महाशुक्रश तारसहस्रारेषु शब्दप्रवीचाराः । श्रानतप्राणतारणाच्युतेषु मनःप्रवीचारा इति । अथ कल्पातीताः कीदृशा इत्याह परेऽप्रवीचाराः ॥ ६॥ परे इत्यनेनोत्तराः सर्वे ग्रैवेयकादय उच्यन्ते । न विद्यते प्रवीचारो येषां तेऽप्रवीचाराः । ग्रैवेयकादयो देवाः सर्वे प्रवीचाररहिताः कामवेदनोद्र ेकाभावात् । तदभावश्च विशुद्धपरिणामविशेषवशातेषां तत्र प्रादुर्भावात् । पूर्वेषां तु देवानां कामवेदनोदयप्रकर्षाप्रकर्षतारतम्यभेदात्कायादिप्रवी चारभेदो 1 पूर्वोक्त देवों से अवशेष सानत्कुमार आदि कल्पवासी देव ही शेष शब्द से कहे गये हैं । स्पर्श आदि पदों का द्वन्द्व गर्भित बहुब्रीहि समास है । सूत्र में पुनः प्रवीचार शब्द का ग्रहण इष्ट अर्थ की प्रतीति के लिये है, वह इष्ट यही है कि आगम के अनुसार स्पर्श आदि प्रवीचार घटित करना, कैसे सो बताते हैं - सानत्कुमार माहेन्द्र के देव और देवियां स्पर्श प्रवीचार वाले हैं । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव और कापिष्ठ स्वर्गस्थ देव देवियां रूप प्रवीचार युक्त हैं । शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार में शब्द प्रवीचार वाले देव देवियां हैं । आनत प्राणत आरण अच्युत में मन: प्रवीचार युक्त देव देवियां हैं । कल्पातीत देव किस प्रकार के हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं सूत्रार्थ - आगे के देव प्रवीचार रहित हैं । परे शब्द से आगे के ग्रैवेयक आदि के देव कहे गये हैं । जिनके प्रवीचार नहीं हैं वे अप्रवीचार कहलाते हैं। ग्रैवेयक आदि के देव सभी प्रवीचार रहित हैं, क्योंकि उनके काम का उद्रेक ही नहीं होता । विशुद्ध परिणाम विशेष होने से उन देवों के कामोद्रक का अभाव होता है । भवनवासी आदि या सौधर्मादि के देवों के काम की वेदना के उदय की प्रकर्ष और अप्रकर्ष की तरतमता के भेद से काय प्रवीचार आदि में भेद होता है । काम वेदना के अनुरूप भावना विशेष से उन देवों ने कर्मों का उपार्जन
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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