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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २११ सुघोषमहाघोषौ । उदधिकुमाराणां जलकान्तजलप्रभौ । द्वीपकुमाराणां पूर्णवशिष्टौ । दिक्कुमाराणाममितगत्यमितवाहनौ । तथा व्यन्तरनिकाये किन्नराणां द्वाविन्द्रौ किन्नरकिंपुरुषौ । किंपुरुषाणां सत्पुरुषमहापुरुषो । महोरगाणामतिकायमहाकायौ । गन्धर्वाणां गीतरतिगीतयशसौ । यक्षाणां पूर्णभद्रमाणिभद्रौ । राक्षसानां भीममहाभीमौ पिशाचानां कालमहाकालौ । भूतानां प्रतिरूपाप्रतिरूपौ । अथ कायसुरतोपसेवनसुखा देवा पाकुत इत्याह कायप्रवीचारा प्राऐशानात् ॥७॥ कायः शरीरं प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् । काये कायेन वा प्रवीचारो येषां देवानां ते कायप्रवीचाराः । पाङभिव्याप्तयर्थः । अत्र विसन्धिरसन्देहार्थः । ततो भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानीयानामेवदेवानां प्रतिपत्तिः । ते हि संक्लिष्टकर्मकत्वात् स्त्रीविषयं सुखं मनुष्यवदनुभवन्ति । शेषा देवाः किं प्रवीचारा इत्याह शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥८॥ महाभीम, पिशाचों के काल और महाकाल तथा भूतों के प्रतिरूप और अप्रतिरूप नाम के इन्द्र होते हैं। प्रश्न-काय से काम सेवन का सुख भोगने वाले देव कहां तक होते हैं ? उत्तर-इसी को अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैं__ सूत्रार्थ-ऐशान स्वर्ग तक देवों के काय से प्रवीचार-अर्थात् काम सेवन होता है। काय शरीर को कहते हैं, प्रवीचार का अर्थ मैथुन उपसेवन है । काय में या काय द्वारा जिन देवों का प्रवीचार होता है वे काय प्रवीचार कहलाते हैं । आङ अव्यय अभिविधि अर्थ में है । "आ और ऐशानात्" इन दो पदों की संधि नहीं की है जिससे अर्थ में संदेह नहीं रहे । उससे भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों की ही प्रतिपत्ति हो । ये देव संक्लिष्ट कर्म वाले होने से स्त्री विषयक सुख को मनुष्य के समान भोगते हैं। शेष देव कौनसे प्रवीचार वाले हैं ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-शेष देव क्रमशः स्पर्शप्रवीचार, रूपप्रवीचार, शब्दप्रवीचार और मनः प्रवीचार वाले होते हैं।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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