________________
चतुर्थोऽध्यायः
[ २०९ कथ्यन्ते । बाह्याभ्यन्तरमध्यपरिषत्सु भवाः पारिषदा वयस्यपीठमर्दसमाना भवन्ति । आत्मरक्षाः शिरोरक्षसमाः । लोकं पालयन्तीति लोकपाला अर्थोत्पादककोट्टपालसदृशाः । दण्डस्थानीयानि सप्तानी कानि भवन्ति । उक्त च
गजाश्वरथपादातवृषगन्धर्वनर्तकी।
सप्तानीकानि ज्ञेयानि प्रत्येकं च महत्तराः ।।इति।। प्रकीर्यन्ते स्म प्रकीर्णकाः पौरजनोपमानाः। आभियोग्या वाहनादिकर्मणि प्रवृत्ता दासतुल्याः प्रोच्यन्ते । किल्विषं पापकर्म विद्यते येषां ते किल्विषिका अन्त्यजस्थानीयाः । एषामितरेतरयोगे द्वन्द्वः । चशब्दः पूर्वविकल्पसमुच्चयार्थः । एकैकस्य निकायस्यैकशः। ततो न केवलं पूर्वोक्तविकल्पाः । किं तह्यते इन्द्रादयश्च दश विशेषा एकैकस्य निकायस्य भवन्तीति समुदायार्थः निकायचतुष्टये सामान्येन दशसु विकल्पेषु प्राप्तेष्वपवादार्थमाह
त्रायस्त्रिशलोकपालवर्जा व्यन्तरज्योतिषकाः ॥५॥ त्रायस्त्रिशाश्च लोकपालाश्च त्रायस्त्रिशलोकपालाः । तान्वर्जयन्तीति त्रास्त्रिशलोकपाल
में होनेवाले पारिषद् कहे जाते हैं ये देव मित्र और पीठ मर्द सदृश हैं । शिर रक्ष के सदृश आत्म रक्ष देव हैं । लोक को पालने वाले लोकपाल अर्थात् अर्थोत्पादक कोटपाल के समान । दण्ड स्थानीय अनीक देव हैं इनके सात प्रकार हैं कहा भी है-गज, अश्व, रथ, पदाति, वृषभ [ बैल ] गन्धर्व और नत की ये सात अनीक जाननी चाहिये, इनमें प्रत्येक में एक एक प्रमुख होता है ।
प्रकीर्णक नागरिक सदृश होते हैं। वाहन कार्य में प्रवृत्त होने वाले अभियोग्य देव हैं ये दास तुल्य होते हैं । किल्विष पाप को कहते हैं जिनके किल्विष पाया जाता है वे किल्विषिक देव हैं ये चण्डाल सदृश होते हैं । इन सब पदों में इतरेतर द्वन्द्व समास है । च शब्द पहले के विकल्पों का समुच्चय करता है। एकशः अर्थात् एक एक निकाय के, इससे यह अर्थ फलित होता है कि पहले कहे हुए विकल्प ही नहीं किन्तु ये इन्द्र आदि दश विशेष भी एक एक निकाय के होते हैं ।
___ चारों निकायों में सामान्य से दस विकल्प प्राप्त होने पर उनमें जो अपवाद है उसको बतलाते हैं
सूत्रार्थ-व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश तथा लोकपाल नाम का विकल्प-( भेद ) नहीं होता है । त्रायस्त्रिश आदि पदों में द्वन्द्व समास है। व्यन्तर