SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती द्वादशविकल्पाः। कल्पोपपन्नपर्यन्तवचनान्न सर्ववैमानिकानां द्वादशविकल्पत्वप्रसङ्गः। ग्रैवेयकादीनां कल्पोपपन्नत्वाऽसम्भवात् । इन्द्रादयः प्रकारा दश प्रकल्प्यन्ते येषु ते विकल्पाः षोडश भवन्ति । कल्पेषूपपन्ना घटमानाः कल्पोपपन्ना रूढिवशाद्वैमानिका एवोच्यन्ते न भवनवासिनः। कल्पोपपन्नाः पर्यन्ता मर्यादाभूता येषां ते कल्पोपपन्नपर्यन्ता निकाया इत्यर्थः । तेषां प्रत्येकमिन्द्रादिविशेषप्रतिपादनार्थमाहइन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य किल्विषिकाश्चैकशः ॥ ४ ॥ इन्द्रादिनामकर्मविशेषापेक्षा एता इन्द्रादयः सञ्ज्ञाः । तत्र विशिष्टाणिमादिगुणयोगादिन्दन्तीतीन्द्राः। परमातॆश्वर्यवजितं यत् स्थानायुर्वीर्यपरिवारभोगादिकं तत्समानम् । तस्मिन्समाने भवाः सामानिका महत्तराः पितृगुरूपाध्यायतुल्याः । त्रयस्त्रिशदेव त्रायस्त्रिंशा मन्त्रिपुरोहितस्थानीयाः हैं। सूत्र में "कल्पोपपन्नपर्यन्ताः" पद है इस पद से सभी वैमानिकों के बारह भेद होने का प्रसंग नहीं आता, क्योंकि वेयक आदि के कल्पोपपन्नत्व असंभव है अर्थात् सोलह स्वर्गों के ऊपर इन्द्र सामानिक आदि की कल्पना नहीं है । इन्द्र आदि दस प्रकार जिनमें घटित होते हैं वे स्वर्ग सोलह हैं । कल्प अर्थात् भेद या प्रकार जिसमें घटमान हैं वे कल्पोपपन्न हैं। रूढि वश वैमानिकों को ही कल्पोपपन्न कहा जाता है न कि भवनवासी आदि को अर्थात् इन्द्रादि की कल्पना भवनवासी आदि में भी है, किन्तु रूढिवश सोलह स्वर्गवासियों को ही कल्पोपपन्न कहते हैं । कल्पोपपन्न पर्यन्ताः पद में बहुब्रीहि समास है। कल्पोपपन्न पर्यन्त के चौथे निकाय तक उक्त दस आदि भेद हैं ऐसा समझना चाहिये । उन दस आदि में प्रत्येक के इन्द्रादि विशेष का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद् आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विषिक ये एक एक निकाय के भेद हैं । इन्द्र आदि नाम कर्म विशेष की अपेक्षा से ये इन्द्र आदि संज्ञा जाननी चाहिये । उनमें विशिष्ट अणिमा, महिमा आदि गुणों के संयोग से जो इन्दन्ति ऐश्वर्यशाली होवे वे इन्द्र कहलाते हैं । परम आज्ञा और ऐश्वर्य को छोड़कर जो स्थान, आयु, वीर्य, परिवार भोगादिक हैं वे जिनके समान हैं और उसमें जो होवे वे सामानिक कहलाते हैं, ये देव इन्द्र के गुरु पिता या उपाध्याय के तुल्य हैं । संख्या में तैंतीस हैं अतः इन्हें त्रायस्त्रिश कहते हैं, ये देव मन्त्री, पुरोहित स्थानीय हैं । बाह्य, अभ्यन्तर और मध्य परिषद्
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy