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________________ चतुर्थोऽध्यायः [ २०७ आद्यास्तिस्रोप्यपर्याप्तेष्वसङ्घय याब्दजीविषु । लेश्याः क्षायिकसदृष्टी कापोता स्याज्जघन्यका ॥ षण्नुतिर्यक्षु तिस्रोऽन्त्यास्तेष्वसङ्ख्याब्दजीविषु । एकाक्षविकलाऽसञ्जिष्वाचं लेश्यात्रयं मतम् ॥ इति ।। एवमाद्यागमाविरोधेन यथासम्भवं लेश्या नेतव्याः। तेषां निकायानामन्तर्विकल्पप्रतिपादनार्थ माह दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ दश च अष्ट च पञ्च च द्वादश च दशाष्टपञ्चद्वादश । ते विकल्पा भेदा येषां निकायानां ते दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः । अत्र यथासङ्खयमभिसम्बन्धाद्विकल्पशब्दस्य च प्रत्येक परिसमाप्तेर्भवनवासिनो दशविकल्पाः । व्यन्तरा अष्टविकल्पाः । ज्योतिष्काः पञ्चविकल्पाः। वैमानिका इन्द्रं प्रति असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमिज जीवों में अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्या होती हैं, उक्त जीव यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है तो उसके मात्र जघन्य कापोत लेश्या होती है । कर्म भूमिज मनुष्य तिर्यंच के छह लेश्या होती है । असंख्यात वर्षायुष्क जीवों के पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्या होती हैं। एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के आदि की तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं ॥१॥२।। इसप्रकार आगम के अविरोध रूप से यथासंभव मार्गणा आदि में लेश्यायें घटित करनी चाहिये। अब उक्त चार निकाय वाले देवों के अन्तर्विकल्प का [ भेदों का 1 प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-प्रथम निकाय से लेकर चतुर्थ निकाय तक के देवों के क्रमशः दस, आठ, पांच और बारह भेद होते हैं चौथा निकाय जो वैमानिक का है उसमें कल्पोपपन्न वैमानिक ये बारह भेद हैं यह विशेष जानना । दश आदि पदों में द्वन्द्वगभित बहब्रीहि समास है । यहां यथा संख्य का संबंध है तथा विकल्प शब्द प्रत्येक के साथ लगाना, इसीको बताते हैं-भवनवासी देवों के दस विकल्प अर्थात् भेद हैं। व्यंतर देव आठ भेद वाले हैं । ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं । वैमानिकों के इन्द्र की अपेक्षा बारह भेद
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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