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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ फलादाने मन्दतमकषायानुरञ्जितं मनोवाक्कायप्रवृत्तित्रितयं शुक्ललेश्येति च बोद्ध व्यं । तथा गुण स्थानेषु षड्लेश्यानां संग्रहश्लोकः
लेश्याश्चतुर्पु षट्पट्च तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्लका षट्सु निर्लेश्यमन्तिमम् ।।
(६-६-६-६, ३-३-३, १-१-१-१-१-१, ०) तथा कृष्णनीलकापोतलेश्या अप्रशस्ता अपर्याप्तेषु भोगभूमिजेषु भवन्ति । अपर्याप्तभोगभूमिजक्षायिकसम्यग्दृष्टौ कापोतलेश्या जघन्या स्यात् । नरतिर्यक्षु कर्मभूमिजेषु षड्लेश्या भवन्ति । नरतिर्यक्षु भोगभूमिजेषु पर्याप्तेषु पीतपद्मशुक्ला: प्रशस्ता भवन्ति । एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वाद्यं लेश्यात्रयं सम्भवति । तथा चोक्त
योग प्रवृत्ति रूप पीत लेश्या है । जिस पुरुष के वृक्ष के फल तोड़ने के भाव हैं वह मंदतर कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति रूप पद्म लेश्या है । जिस पुरुष के वृक्ष के नीचे स्वतः गिरे मात्र फल लेने के भाव हैं वह मंदतम कषाय से अनुरंजित मन वचन काय की प्रवृत्तित्रय रूप शुक्ल लेश्या है ।
अब यहां पर गुणस्थानों में छह लेश्याओं का अस्तित्व किस किस प्रकार है इस विषय का संग्रह श्लोक कहते हैं-प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक छह लेश्या होती हैं । पुनः पांचवें से लेकर सातवें गुणस्थान तक तीन शुभ लेश्या होती है, इसके आगे आठवें से लेकर तेरहवें तक एक शुक्ल लेश्या होती है। अंतिम चौदहवां गुणस्थान लेश्या रहित है ।।१।।
अपर्याप्तक भोगभूमिज जीवों के अप्रशस्त कृष्ण, नील और कापोत लेश्या होती है। कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि कर्म भूमिज मनुष्य मरकर भोगभूमिज मनुष्य हुआ तो उसके अपर्याप्त अवस्था में जघन्य कापोत लेश्या होती है । कर्म भूमि के मनुष्य तथा तिर्यञ्चों में छह लेश्या होती हैं । पर्याप्तक भोग भूमिज मनुष्य और तिर्यंच के प्रशस्त पीत पदम शुक्ल लेश्या होती हैं । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में आदि की तीन लेश्या होती हैं।
कहा भी हैं