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चतुर्थोऽध्यायः
प्रादितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः ॥ २ ॥
श्रादौ प्रादितः । एतस्योपादानादन्तेऽन्यथा वा निकाय ग्रहणनिवृत्तिर्भवति । त्रिष्विति वचनादेकस्य द्वयोर्वा निवर्तनम् । चतुर्णां पुनरप्रसङ्ग एवादित इति वचनात् । पञ्चमाद्यभावाच्चतुर्थस्या दित्वाघटनात् । पीतं तेजः । पीता अन्ते यासां ताः पीतान्ताः । पीतान्ता लेश्या येषां ते पीतान्तलेश्या देवाः । श्रागमान्तरे षड्लेश्याः प्रपञ्चिताः - कृष्णा नीला कापोती पीता पद्मा शुक्ला चेति । ताश्च द्रव्यभावभेदाद्द्द्वेधा । तत्र देहकान्तिरूपा द्रव्यलेश्या । कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्भावलेश्या । उक्तं च
लेश्या योगप्रवृत्तिः
स्यात्कषायोदयरञ्जिता ।
भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य च्छविः षोढोभयी तु सा ॥
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ततो भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काख्यादिनिकायत्रये देवानां पीता पद्मा शुक्ला चेति लेश्यात्रयं द्रव्यतोऽस्ति । षडपि लेश्या द्रव्यतः सन्तीति केचिदाचक्षते । तदुक्तं सिद्धान्तालापे
सूत्रार्थ - आदि के तीन निकायों में पीतान्त लेश्या होती है । सप्तमी अर्थ में आदि शब्द से तस् प्रत्यय आया है, आदितः कहने से अन्त का या अन्य निकाय का ग्रहण न होकर प्रारंभ के निकायों का ग्रहण होता है तथा "त्रिषु" कहने से एक या दो निकाय ग्रहण का निषेध हो जाता है, "आदितः " कहने से चार निकायों का प्रसंग नहीं आता, क्योंकि पांच आदि निकाय तो है नहीं और चतुर्थ के आदिपना संभव नहीं । "पीतान्त लेश्या:" में बहुब्रीहि समास है । आदि के तीन प्रकार के देवों में पीत तक की लेश्यायें होती हैं ।
आगम में छह लेश्या कही हैं— कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । पुनः उनके द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या ऐसे दो भेद हैं । उनमें शरीर की कान्ति रूप द्रव्य लेश्या है और कषाय उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति भाव लेश्या है । कहा भी है - कषायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति भाव से लेश्या है और शरीर की कान्ति द्रव्य से लेश्या है । ये दोनों छह भेद वाली हैं ॥१॥ भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क नाम वाले तीन निकाय के देवों के पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन द्रव्य लेश्या हैं । तथा कोई कोई इन देवों के द्रव्य लेश्या छह मानते हैं ।