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________________ अथ चतुर्थोऽध्यायः इदानीं देवप्रकारप्रतिपत्त्यर्थमाह देवाश्चतुनिकायाः ॥१॥ अन्तरङ्गदेवगतिनामकर्मोदये सति बाह्यविभूतिविशेषैर्दीपाद्रिसमुद्रादिषु यथेष्ट दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । स्वधर्मविशेषापादितभेदस्य शुभदेवगतिनामकर्मण उदयसामर्थ्याग्निचीयन्ते व्यवस्थाप्यन्त इति निकायाः संघाता इत्यर्थः । ते च भवनवासिनो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका इति चत्वारो निकाया येषां ते चतुनिकाया देवा वेदितव्याः न पुनर्ब्रह्माद्यष्ट सङ्घाता अन्यथा वेत्यर्थः । देवाश्चतुनिकाया इति जात्यपेक्षयकवचननिर्देशन सिद्ध बहुवचननिर्देश इन्द्रसामानिकादिस्थित्यादिकृतावान्तरभेदबहुत्वसंसूचनार्थः । तत्र त्रिषु निकायेषु देवानां लेश्यावधारणार्थमाह सत्रार्थ-देव चार निकाय वाले हैं। अंतरंग में देवगति नाम कर्म के उदय होने पर बाह्य विभूति विशेषों द्वारा द्वीप, पर्वत, समुद्र आदि में जो यथेच्छ क्रीड़ा करते हैं वे देव कहलाते हैं । अपने धर्म विशेष से भेद को प्राप्त ऐसे शुभ देवगति नाम के उदय के सामर्थ्य से जो व्यवस्थित होते हैं वे निकाय कहलाते हैं अर्थात् देवगति नाम कर्म के अन्तर्भेद बहुत हैं उन भेद वाले शुभ नाम कर्मों के उदय से देवों में भेद होते हैं अतः देवों के चार निकाय-[संघात-समूह] हैं, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक इसप्रकार चार निकाय हैं जिनके, वे चतुनिकाय कहलाते हैं । देवाश्चतुनिकायाः ऐसा सूत्र में बहु वचन का प्रयोग इन्द्र, सामामिक आदि भेद तथा स्थिति आदि विषयक भेदों को सूचना के लिये किया गया है। तीन निकायों में देवों की लेश्या का अवधारण करते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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