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________________ २०० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती स्थितिः का? कः पुनरनयोविशेषः ? एकभवविषया भवस्थितिः । कायस्थितिरेककायाऽपरित्यागेन नानाभवग्रहणविषया। यद्येवमुच्यतां कस्य का कायस्थितिः ? उच्यते-पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां कायस्थितिरुत्कृष्टा असंखये या लोकाः । वनस्पतिकायिकस्यानन्तः कालोऽसंखय याः पुद्गलपरिवर्ताः आवलिकाया असंखय यभाग मात्रा विकलेन्द्रियाणाम् । असंखये यानि वर्षसहस्राणि पञ्चेन्द्रियाणाम् । तिर्यङ मनुष्याणां तिस्रः पल्योपमाः पूर्वकोटीपृथक्त्वेनाभ्यधिकाः । तेषां सर्वेषां जघन्या कायस्थितिरन्तमुहूर्ता । देवनारकाणां भवस्थितिरेव न कायस्थितिः ।। शशधरकरनिकरसतारनिस्तलतरलतलमुक्ताफलहारस्फारतारानिकुरुम्बबिम्बनिर्मलतरपरमोदार शरीरशुद्धध्यानानलोज्ज्वलज्वालाज्वलितघनघातीन्धनसङ्घातसकलविमलकेवलालोकित प्रश्न-इन जीवों की काय स्थिति कौनसी है, तथा भव स्थिति और काय स्थिति में क्या अन्तर है ? उत्तर-एक भव या पर्याय विषयक स्थिति [आयु] भव स्थिति कहलाती है । एक काय का त्याग नहीं करते हुए नाना भव ग्रहण करना काय स्थिति कहलाती है । प्रश्न-यदि ऐसी बात है तो बताईये कि किस जीव की कायस्थिती कितनी है ? उत्तर-पृथिवीकायिक, जलकायिक अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट काय स्थिति असंख्येय लोक प्रमाण है अर्थात् असंख्याते लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने काल प्रमाण है। वनस्पतिकायिकों की कायस्थिति अनन्त काल की है, उस काल में असंख्यात पुद्गल परावर्तन हो जाते हैं। आवली के असंख्येय भाग मात्र विकलेन्द्रियों की कायस्थिति है। पंचेन्द्रियों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय हजार वर्षों की है। तिर्यञ्च मनुष्यों की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण है । इन सर्व ही जीवों की जघन्य कायस्थिति अन्तमुहर्त है । देव नारकियों की भवस्थिति ही होती है कायस्थिति नहीं होती क्योंकि देव तथा नारकी जीव मरकर तत्काल देव या नारकी नहीं बनते इन्हें मध्य में मनुष्य या तिर्यञ्च का भव लेना पड़ता है लगातार देव ही होते रहें या नारकी ही होते रहें ऐसा संभव नहीं है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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