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तृतीयोऽध्यायः
[१६५ चतुरशीतिपूर्वाङ्गशतसहस्राणि पूर्वम् । एवमनयैव वृद्धया पर्वांग, पर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुट्यांग, तुटय, अदटांग, अदट, अममांग, अमम, हूहांग, हूह, लतांग, लता, महालतांग, महालताप्रभृतिसञ्ज्ञाः । कालो वर्षगणनागम्यः संखय यो वेदितव्यः । ततः परोऽसंखद्य यः पल्योपमसागरोपमप्रमितः । ततः परोऽनन्तः कालोऽतीतोऽनागतश्च सर्वज्ञप्रत्यक्षः । भावप्रमाण पञ्चविधं ज्ञानं पुरस्ताद्वयाख्यातम् । यथैवैते उत्कृष्टजघन्ये स्थिती नृणां तथैव तिरश्चामपि प्रतिपादयन्नाह
पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वांगों का एक पूर्व होता है । इसी क्रम से आगे आगे वृद्धि करते करते पर्वांग, पर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुट्यांग, तुटय, अदटांग, अदट, अममांग, अमम, हूहांग, हूह, लतांग, लता, महालतांग, महालता इत्यादि काल वर्षों की गणना के गम्य है वह सर्व ही संख्येय जानना चाहिये । उससे आगे का असंख्येय काल है जो कि पल्योपम सागरोपम स्वरूप है। उससे आगे का काल अनंत स्वरूप है, अतीत और अनागत काल अनंत है यह अनंत संख्या सर्वज्ञ गम्य है।
भाव प्रमाण ज्ञान को कहते हैं ज्ञान के पांच भेद मति आदि पहले कह आये हैं ।
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