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________________ १९४ ] - सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती निष्पन्नक्षेत्रं चानेकविध-असंखय या आकाशश्रेणयः । ताश्च क्षेत्रप्रमाणांगुलस्यैकोऽसंखययभागः । असंखये याः क्षेत्रप्रमाणांगुलासंखये यभागाः क्षेत्रप्रमाणांगुलमेकं भवति । पादवितस्त्याद्यवशिष्ट पूर्ववद्वेदितव्यम् ।। कालप्रमाणमुच्यते-सर्वजघन्यगतिपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाढाकाशप्रदेशव्यतिक्रमकालः परमनिरुद्धो निविभागः समयः। असंखय या: समया आवलिकैका । संखये या प्रावलिका एक उच्छ्वासः । तावानेव निःश्वासः । तावेतावनुपहतस्य पुसः प्राण एकः । सप्त प्राणाः स्तोकः । सप्त स्तोका लवः । सप्तसप्ततिलवा मुहूर्तः । त्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रः पञ्चदशाहोरात्राः पक्षः । द्वौ पक्षौ मासः । द्वौ मासौ ऋतुः । ऋतुवस्त्रयोऽयनम् । द्वे अयने संवत्सरः। चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि पूर्वाङ्गम् । प्रदेश वाले पुद्गल द्रव्यों के अवगाहों के कारण आकाश प्रदेशों के एक प्रदेश आदि से लेकर असंख्येय प्रदेश तक भेद होते हैं, अभिप्राय यह हुआ कि लोकाकाश के एक प्रदेश पर एक पुद्गल परमाणु अवगाह लेता है, द्वयणुक त्र्यणुक आदि स्कंध एक प्रदेश पर स्थित हो सकते हैं तथा भिन्न प्रदेश पर भी स्थित हो सकते हैं इस क्रम से अनंतानंत प्रदेश वाले स्कंध एवं अनंतानंत पुद्गल द्रव्य के भेद प्रभेद [ बादर सूक्ष्म आदि स्कंध, आहार वर्गणा आदि वर्गणायें ] यथायोग्य शिथिल रूप स्कंध या सघन संघात रूप स्कंध की जाति के अनुसार संख्यात आदि आकाश प्रदेशों पर अवगाह लेते हैं, ये सर्व पूद्गल असंख्यात प्रदेश वाले लोककाश में अच्छी तरह अवगाहित हो जाते हैं। विभाग निष्पन्न क्षेत्र भी अनेक प्रकार का है वह असंख्येय आकाश श्रेणी प्रमाण हैं । वे आकाश श्रेणियां क्षेत्रप्रमाणांगुल के एक असंख्येय भाग है । असंख्येय क्षेत्र प्रमाणांगुलों के असंख्येय भाग प्रमाण एक क्षेत्र प्रमाणांगुल होता है। पाद, वितस्ति आदिक पूर्ववत् समझना। काल प्रमाण बतलाते हैं-सर्व जघन्य गति [ मंद गति ] से परिणत परमाणु अपने अवगाहित एक आकाश प्रदेश को उल्लंघन करता है उसमें जितना काल लगता है वह 'समय' कहलाता है जो कि सर्वथा निविभाग परम निरुद्ध है । असंख्येय समयों की एक आवली, संख्यात आवली का एक उच्छ्वास होता है निःश्वास भी उतने ही प्रमाण है । दोनों मिलकर स्वस्थ पुरुष का एक प्राण होता है । सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, सतत्तर लवों का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्त की एक अहोरात्रि, पंद्रह अहोरात्रियों का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों का एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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