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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १६३ पल्यप्रदानं कृत्वाऽन्योन्यगुणने कृते यावन्तश्छेदास्तावद्भिराकाशप्रदेशैर्मुक्तावली कृता सूच्यं गुलमित्युच्यते । ( सूच्यंगुलस्य सन्दृष्टियङ्कः )। तदेवापरेण सूच्यंगुलेन गुणितं प्रतरांगुलं ( प्रतरांगुलस्य सन्दृष्टिश्चतुरङ्कः)। तत्प्रतरांषुलमपरेण सूच्यंगुलेनाभ्यस्तं घनांगुलम् । ( अस्य सन्दृष्टिःषडङ्कः )। पञ्चविंशतिकोटीकोटीनामुद्धारपल्यानां यावन्ति रूपाणि जम्बूद्वीपप्रमाणस्यार्धच्छेदनानि च रूपाधिकानि सर्वाणि तानि प्रत्येकं द्विगुणीकृत्यान्योन्याभ्यस्तानि कृत्वा यः समुत्पादितो राशिस्तस्य परिच्छेद प्रमिताकाशप्रदेशपङ्ती रज्जुः । (तस्याश्च सन्दृष्टिः श्रेणीसप्तमभाग ) असङ्ख्य यवर्षाणां यावन्तस्समयास्तावत्खण्डमद्धापल्यं कृतम् । ततोऽसङ्खये यान् खण्डानपनीयासङ्घय यमेकभागं बुद्ध या विरलीकृत्य एकैकस्मिन् घनांगुलं दत्वा परस्परेण गुणिता जाता जगच्छणी। ( अस्याः सन्दृष्टिस्तिर्यगेका रेखा) सा अपरया जगच्छण्याऽभ्यस्ता प्रतरलोकः । (अस्य सन्दृष्टिस्तिर्यग्रेखाद्वयम्)। स एवापरया जगच्छण्या संवर्गितो घनलोकः । (अस्य सन्दृष्टिस्तिर्यग्रेखात्रयम् )। क्षेत्रप्रमाणं द्विविध-अवगाहक्षेत्र विभागनिष्पन्नक्षेत्रं चेति । तत्र चावगाहक्षेत्रमनेकविधं-एकद्वित्रिचतुःसङ्घय यासंखय यानन्तप्रदेशपुद्गल-द्रव्यावगाह्यकाद्यसंखये याकाशप्रदेशभेदात् । विभाग में जितने छेद हैं उतने आकाश प्रदेशों द्वारा मुक्तावली स्थापित की वह सूच्यंगुल हआ सूच्यंगुल की संदृष्टि दो का अंक है (२) सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल बनता है । प्रतरांगुल की संदृष्टि चार का अंक है (४) प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल बनता है इसकी संदृष्टि षडंक है । पच्चीस कोटा कोटी उद्धार पल्यों के जितने रूप हैं तथा जंबूद्वीप प्रमाण के जितने अर्धच्छेद हैं उनमें एक रूप अधिक कर फिर उनमें से प्रत्येक को दुगुणा करो। फिर उसको परस्पर में अभ्यस्त करें जो राशि उत्पन्न हुई उसके परिच्छेद प्रमाण आकाश प्रदेशों की जो पंक्ति है वह राजू कहलाता है उसकी संदृष्टि श्रेणी का सप्तम भाग है। ___ असंख्यात वर्षों के जितने समय हैं उतने अद्धापल्य के खण्ड किये, उनमें से असंख्येय खण्डों को हटाकर एक असंख्येय भाग लिया, उस भाग का बुद्धि द्वारा विरलन किया । एक एक पर घनाँगुल दिया और परस्पर में गुणा किया तब जगत श्रेणी होती है इसकी संदृष्टि तिरछी रेखा है । जगत् श्रेणी को जगत् श्रेणी से गुणा करने पर प्रतर लोक होता है इसकी संदृष्टि तिरछी दो रेखा है । प्रतर लोक को जगत् श्रेणी से गुणा करने पर घन लोक होता है, इसकी संदृष्टि तिरछी तीन रेखा है। क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार का है-अवगाह क्षेत्र और विभाग निष्पन्न क्षेत्र । अवगाह क्षेत्र अनेक प्रकार का है एक परमाणु दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनंत
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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