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________________ १९२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती ग्राणि तावच्छिन्नानि यावद्वितीयं कर्तरिच्छेदं नावाप्नुवन्ति तादृशैर्लोमच्छेदैः परिपूर्णं घनीकृतं व्यवहारपत्यमित्युच्यते । ततो वर्षशते वर्षशतेऽतीते एकैकलोमा पकर्षणविधिना यावता कालेन तद्रिक्त' भवेत्तावत्कालो व्यवहारपल्योपमाख्यः । तैरेव रोमच्छेदैः प्रत्येकमसंख्येयवर्ष कोटिसमयमात्रच्छिन्न : पूर्णमुद्धारपल्यम् । ततः समये समये एकैकस्मिन्रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं भवति तावान्काल उद्धारपल्योपमः । एषामुद्धारपल्यानां दश कोटीकोटय एकमुद्धारसागरोपमम् । अर्धतृतीयो - द्धारसागरोपमाणां यावन्तो रोमच्छेदास्तावन्तो द्वीपसमुद्राः । पुनरुद्धारपल्य रोमच्छेदैर्वर्षशतसमयमात्रच्छिन्नैः पूर्णमद्धापल्यम् । ततः समये समये एकैकस्मिन् रोमच्छेदेऽपकृष्यमाणे यावता कालेन तद्रिक्त भवति तावत्कालोऽद्धापल्योपमाख्यः । एषामद्धापल्यानां दश कोटी कोटय एकमद्धासागरोपमम् । दशाद्धासागरोपमकोटीकोटय एकावसर्पिणी । तावत्येवोत्सर्पिणी । अनेनाद्वापल्येन नारकतैर्यग्योनानां देवमनुष्याणां च कर्मस्थितिर्भवस्थितिरायुःस्थितिः कार्यस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या । ( पल्यस्य सन्दृष्टि: पवर्णः । सागरोपमस्य सन्दृष्टि: सावर्ण: ) । श्रद्धापल्यस्याऽर्धच्छेदेन शलाका विरलीकृत्य प्रत्येकमद्धारचे । एक दिन से लेकर सात दिन तक के जन्मे हुए भेड़ों के बच्चों के केशों को लेकर इतने छोटे छोटे टुकड़े करना कि जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके ऐसे रोमच्छेदों से उक्त गड्ढों को पूर्ण भरना, उनमें जितने रोमच्छेद आये उतनी संख्या वाला व्यवहार पल्य है । उन रोम छेदों को सौ वर्ष बाद एक रोमछेद निकालना, फिर सौ वर्ष बाद एक निकालना, इस विधि से जितने काल में उक्त गड्ढे खाली हुए उतने काल को व्यवहार पल्योपम कहते हैं । उन्हीं रोमच्छेदों में से प्रत्येक प्रत्येक को असंख्यात कोटी वर्ष के समयों से गुणा किया तो उद्धार पल्य हुआ, फिर एक समय में एक रोमच्छेद निकाला, इस रीति से जितने काल में सर्व रोमच्छेद निकाले उतने काल का उद्धार पल्योपम हुआ, दश कोटा कोटी उद्धार पल्यों का एक उद्धार सागर होता है, ढाई उद्धार सागर के जितने रोमच्छेद हैं उतने द्वीप सागर हैं । उद्धार पल्य के जो रोमच्छेद हैं उनको सौ वर्ष के समयों से गुणा किया तब एक अद्धा पल्य हुआ, उन रोमछेदों को एक समय में एक रोमछेद निकालने के विधि से निकाला उतने काल का एक अद्धा पल्योपम होता है, दस कोटाकोटी अद्धा पल्यों का एक अद्धासागर होता है । दस कोटाकोटी अद्धा सागरों की एक उत्सर्पिणी होती है और उतने प्रमाण ही अवसपिणी होती है । इस अद्धापल्य द्वारा नारकी, तिर्यंच देव और मनुष्यों की कर्मस्थिति भवस्थिति, आयुस्थिति और कार्यस्थिति नापी जाती है । पल्य की संदृष्टि पवर्ण है । सागरोपम की दृष्टि 'सा' है । अद्धापल्य के अर्धच्छेद करके उस शलाका का विरलन करे फिर उस विरलन के एक एक अंक पर अद्धापल्य स्थापित करे और परस्पर में गुणा करे, गुणित राशि
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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