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________________ तृतीयोऽध्यायः [१९१ देवमनुष्याणामकृत्रिमजिनालयप्रतिमानां च देहोत्सेधो मातव्यः । तदेव पञ्चशतगुणितं प्रमाणांगुलं भवति । एतदेव चावसपिण्यां प्रथमचक्रधरस्यात्मांगुलं भवति । तदानीं तेन ग्रामनगरादिप्रमाणपरिच्छेदो ज्ञेयः । इतरेषु युगेषु मनुष्याणां यद्यदात्मांगुलं तेन तेन तदा ग्रामनगरादिप्रमाणपरिच्छेदो ज्ञेयः । यत्तत्प्रमाणांगुलं तेन द्वीपसमुद्रजगतीवेदिकापर्वतविमाननरकप्रस्ताराद्य कृत्रिमद्रव्यायामविष्कम्भादिपरिच्छेदोऽवसेयः । षडंगुलः पादः । द्वादशांगुलो वितस्तिः। द्विवितस्तिहस्तः। द्विहस्तः किष्कुः । द्विकिष्कुर्दण्डः । द्वे दण्डसहस्र गव्यूतं । चतुर्गव्यूतं योजनम् । पल्यं त्रिविध-व्यवहारोद्धाराद्धाविकल्पादन्वर्थात् । व्यवहारपल्यमुद्धारपल्यमद्धापल्यमिति त्रिधा पल्यं विभज्यते । त्रिधा अन्वर्थश्चायं विकल्पः । आद्यं व्यवहारपल्यमुत्तरपल्यव्यवहारबीजत्वानानेन किञ्चित्परिच्छेद्यमस्ति । द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्ध तैर्लोमच्छेदैर्वीपसमुद्रसंखया निर्णय इति । तृतीयमद्धापल्यमद्धाकाल इत्यर्थः । अतो हि स्थितिपरिच्छेद इति । तद्यथा-प्रमाणांगुलपरिमितयोजनायामविष्कम्भावगाहानि त्रीणि पल्यानि-कुसूला इत्यर्थः । एकादिसप्तान्ताहोरात्रजाताऽवि रोमा तिर्यञ्च, देव, मनुष्यों के शरीर, अकृत्रिम जिनालय, प्रतिमाओं का माप होता है । उसी उत्सेधांगुल' को पांच सौ से गुणा करने पर एक प्रमाणांगुल होता है, अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती का आत्मांगुल इस प्रमाणांगुल के समान होता है । उस वक्त उस अंगुल से ग्राम नगर आदि का माप होता है । अन्य अन्य कालों में उस उस समय के मनुष्यों का जो जो अंगुल होता है उस उससे उस वक्त के ग्राम नगर आदि का प्रमाण मापना चाहिये । जो यह प्रमाणांगुल है, उसके द्वारा द्वीप, सागर, वेदिका, जगती, पर्वत, विमान, नरक, पाथडे इत्यादि अकृत्रिम पदार्थों के आयाम विष्कंभ आदिका प्रमाण मापा जाता है। - छह अंगुल का एक पाद होता है । बारह अंगुल का एक वितस्ति-बिलास्त होता है। दो वितस्ति का एक हाथ, दो हाथों का एक किष्कु, दो किष्क का एक दण्ड [ धनुष ] दो हजार दण्डों का एक क्रोश और चार कोशों का एक योजन होता है। पत्य तीन प्रकार का है-व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य । ये तीनों सार्थक नाम वाले हैं, पहला व्यवहार पल्य आगे के दो पल्यों के उत्पत्ति का कारण स्वरूप है, इससे कोई पदार्थ नापा नहीं जाता। दूसरा जो उद्धार पल्य है उसके उधत लोमच्छेदों द्वारा द्वीप सागरों की संख्या का निर्णय होता है। तीसरा अद्धापल्य है, अद्धा का अर्थ काल है, इस पल्य से स्थिति का नाप करते हैं । अब इसीको स्पष्ट करते हैं-प्रमाणांगुल से नापा गया प्रमाण योजन अर्थात् महायोजन जो कि लघु योजन से पांच सौ गुणा हे उस एक योजन के लंबे चौड़े और गहरे तीन पल्य अर्थात् कुसूल-गड्डू
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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