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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १८९ ये यासंखच यमतीत्य जघन्यपरीतानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टासंखच यासंखय यं भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्टासंखच यासंखय यं भवति । यत्रासंखये यासंखये येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टासंखये यासंखय यं ग्राह्यम् । असंखय यस्य सन्दृष्टिदकारः ।। यज्जघन्यपरीतानन्तं तत्पूर्ववद्वगितसंवगितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टपरीतानन्तं तद्भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्ट परीतानन्तमभव्यराशि प्रमाणमार्गणे जघन्ययुक्तानन्तं ग्राह्यम् । यज्जघन्ययुक्तानन्तं तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघन्ययुक्तानन्तं दत्वा सकृद्वर्गितं सम्मिलितं च कृतं सदुत्कृष्ट युक्तानन्तमतीत्य जघन्यमनन्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानन्तं भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तं भवति । यज्जघन्यानन्तानन्तं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्त्रीन्वारान्वगितं संवगितमप्युत्कृष्टानन्तानन्तं न प्राप्नोति तत: सिद्धनिगोतजीववनस्पतिकायाऽतीतानागतकालसमयसर्वपुद्गलसर्वाकाश प्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुलघुगुणाननन्तान् मिलाना फिर तीन बार वगित संवर्गित किया तब उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय का उल्लंघन कर जघन्य परीत अनंत को प्राप्त हुआ, उसमें एक रूप निकाल दिया तो उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय हुआ । मध्यम का अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होता है। जहां पर असंख्येय असंख्येय का प्रयोजन हो वहां अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय लेना चाहिये । इस असंख्येय की संदृष्टि दकार है । जो जघन्य परीतानंत है उसको पूर्ववत् वगित संगित किया वह उत्कृष्ट परीतानंत का उल्लंघन कर जघन्य युक्तानंत को प्राप्त हुआ, उसमें से एक रूप निकाल देने पर उत्कृष्ट परीतानंत हुआ। मध्यम का अजघन्योत्कृष्ट परीतानंत है, अभव्य राशि का प्रमाण जघन्य युक्तानंत है । जो जघन्य युक्तानंत है उसका विरलन कर एक एक रूप पर जघन्य युक्तानंत देकर एक बार वर्गित तथा पिंडित किया तो उत्कृष्ट युक्तानंत का उल्लघन कर जघन्य अनंतानंत को प्राप्त हुआ, उसमें से एक रूप कम किया तब उत्कृष्ट युक्तानंत होता है । मध्यम का अजघन्योत्कृष्ट युक्तानंत है। जो जघन्य अनंतानंत है उसका विरलन कर पूर्ववत् तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर भी उत्कृष्ट अनंतानंत प्राप्त नहीं होता अतः सिद्ध जीव निगोद जीव, वनस्पतिकायिक, अतीत अनागत काल के समय, सर्व पुद्गल राशि, सर्व आकाश प्रदेश तथा धर्म अधर्म द्रव्यों के अगुरुलघु इतनी अनंत राशियों को उक्त संख्या में मिलाकर फिर तीन बार
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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