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________________ १८८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ जघन्यपरीतासंखय यसंपिण्डनान्निष्पन्नो राशिः स देय एकैकस्यां मुक्तायाम् । एवमेतद्धि वगितं पुनर्वगितमिति कृत्वा प्रतिवगितं वर्गितवगितं चोच्यते । तच्चोत्कृष्टपरोतासखय यमतीत्य जघन्ययुक्तासंखय यं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्ट परीतासंखच यं भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्ट परीतासंखयेयं भवति । यत्रावलिकया कार्य तत्र जघन्ययुक्तासंखय यं ग्राह्यम् । जघन्ययुक्तासंखय यं विरलीकृत्य मुक्तावली रचिता । तत्रैकमुक्तायां जघन्ययुक्तासंखय यानि देयानि । एवमेतत्सकृगितं सपिण्डं च कृतं सदुत्कृष्ट युक्तासंखय यमतीत्य जघन्यासंखय यासंखय यं गत्वा पतितम् । तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्ट युक्तासंखय यं भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्ट युक्तासंखय यं भवति । यज्जघन्यासंखय यासंखय यं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना श्रीन्वारान्वगितसंपिण्डितं कृतं सदुत्कृष्टासंखय यासंखच यं न प्राप्नोति ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षडप्येतान्यसंखय यानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंखय यलोकप्रदेश परिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रीन्वारान्वगितसंवगिते कृते उत्कृष्टासंख जो जघन्य परीत असंख्येय के संपिंड से [ परस्पर गुणन से ] राशि प्राप्त हुई वह एक एक मुक्ता पर देय है इसप्रकार इस वर्गित को पुनः वर्गित करके प्रति वगित हुआ इसको वर्गित वर्गित भी कहते हैं । वह संख्या उत्कृष्ट परीत असंख्येय का उल्लंघन कर जघन्य युक्त असंख्येय में जाकर पतित होती है, उससे एक रूप कम करने पर उत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है । मध्यम का अजघन्योत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है। जहां आवली से कार्य-( प्रयोजन ) होता है वहां जघन्य युक्त असंख्येय राशि लेना चाहिये। जघन्य युक्त असंख्येय का विरलन कर मुक्तावली रची उनमें एक मुक्ता [अंक] पर जघन्य युक्त असंख्येय देना इसतरह एक बार वर्गित कर तथा पिंड कर जो लब्ध आया वह उत्कृष्ट युक्त असंख्येय का उल्लंघन कर जघन्य असंख्येय असंख्येय को प्राप्त हआ। उसमें एक रूप कम करने पर उत्कृष्ट युक्त असंख्येय होता है। मध्यम का अजघन्योत्कृष्ट युक्त असंख्येय होता है । जो जघन्य असंख्येय असंख्येय है उसका विरलन कर पूर्व विधि से तीन बार वर्गित संपिंड किया फिर भी उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय नहीं बना अतः धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव और लोकाकाश के प्रदेश तथा प्रत्येक जीव के शरीर एवं बादर निगोद शरीर ये छहों असंख्येय राशि हैं, तथा स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, योग विभाग परिच्छेद रूप, असंख्यात लोकों के प्रदेश उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के समय ये सर्व ही राशियां पूर्वोक्त राशि में
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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