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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १८७ पूर्ण इति प्रतिशलाकाकुसूले एकः सर्षपो निक्षेप्तव्यः । एवं तावत्कर्तव्यो यावत्प्रतिशलाका कुसूल: परिपूर्णो भवति । पूर्ण इति महाशलाकाकुसूले एकः सर्षपो निक्षेप्तव्यः । सोऽपि तथैव पूर्णः । एवमेतेषु चतुर्वपि पूर्णेषु उत्कृष्टं सङ्घय यमतीत्य जघन्यपरीतासङ्घय यं गत्वैकं रूपं पतितम् । तत एकस्मिन् रूपे अपनीते उत्कृष्टसङ्ख्य यं भवति मध्यममजघन्योत्कृष्ट सङ्खये यम् । यत्र सङ्घय येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टसवय यं ग्राह्यम् । सङ्खय यस्य सन्दृष्टिरौकार एकद्वित्रिचतुराद्यङ्का वा ॥ . ___यदसङ्खच यं तत्रिविधम्-परीतासङ्घय यं, युक्तासङ्खच यमसङ्घय यासंखय यं चेति । तत्र परीतासंखये यं त्रिविधम्-जघन्योत्कृष्टमध्यमभेदादेवमितरे चासंखये ये भिद्यते । तथाऽनन्तमपि त्रिविधम् परीतानन्तं युक्तानन्तमनन्तानन्तं चेति। तदपि प्रत्येकं पूर्ववत्रिधा भेद्यम् । यज्जघन्यपरीतासंखय यं तद्विरलीकृत्य मुक्तावली कृता । तत्रैकस्यां मुक्तायां जघन्यपरीतासंखय यं देयम् । एवमेतत्पृथक्पृथक्पु जाकारेण विधृतं वर्गीकृतं वर्गीकृतमित्युच्यते । एतस्मात्प्राथमिकी मुक्तावलीमपनीय यान्येकैकस्यां मुक्तायां जघन्यपरीतासंखच यानि दत्तानि तानि मिलनविधिना संपिण्ड्य मुक्तावली कार्या। ततो यो कुण्ड में डालनी चाहिये, ऐसा ही तब तक करना चाहिये जब तक कि प्रतिशलाका कुसूल परिपूर्ण होवे । जब यह पूर्ण होवे तब एक सरसों महाशलाका कुण्ड में डालें। पुनः वह भी उसी विधि से पूर्ण होगया । इसप्रकार चारों ही कुण्ड परिपूर्ण होने पर उत्कृष्ट संख्येय का उल्लंघन होता है और जघन्य परीत असंख्येय तक जाकर एक रूप पतित हुआ, पुनः उससे एक रूप निकाला तब उत्कृष्ट संख्येय होता है । मध्यम को अजघन्य उत्कृष्ट कहते हैं। जहां पर संख्येय से प्रयोजन होता है वहां पर अजघन्य उत्कृष्ट संख्येय ग्रहण करना चाहिये । इस संख्येय गणना की संदृष्टि औकार है, अथवा एक, दो, तीन, चार आदि अंक हैं । जो असंख्येय है वह तीन प्रकार का है-परीतासंख्येय, युक्तासंख्येय और असंख्येयासंख्येय । उनमें परीतासंख्येय तीन तरह का है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । इसीप्रकार युक्तासंख्येय तथा असंख्येयासंख्येय भी तीन तीन प्रकार का है। तथा अनंत भी तीन प्रकार का है-परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । उन तीनों के भी पूर्ववत तीन तीन भेद होते हैं। जो जघन्य परीत असंख्येय है उसका विरलन कर मुक्तावली बनायी। उनमें एक मुक्ता-अंक पर जघन्य परीत असंख्येय देना चाहिये । इसप्रकार यह पृथक् पृथक् पुजाकार से रखकर वर्ग करने पर वर्गीकरण किया ऐसा कहते हैं। इससे पहली मुक्तावली का विरलन करना एक एक मुक्ता-अंक पर जघन्य परीत असंख्येय दिया उनको मिलन विधि से पिण्ड करके मुक्तावली [ पंक्ति ] करना उससे
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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