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________________ १८६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती द्रव्यप्रमाणं सङ्ख्याप्रमाणमुपमाप्रमाणं चेति द्वेधा विभज्यते । तत्र सङ्ख्याप्रमाणं त्रिधा - सङ्ख्ययासङ्ख्य' यानन्तभेदात् । तत्र सङ्ख्य यप्रमाणं त्रेधा । इतरे द्वे नवधा ज्ञेये । जघन्यमजघन्योत्कृष्टमुत्कृष्ट ं चेति सङ्ख्य ेयं त्रिविधम् । सङ्खयं यप्रमाणावगमार्थं जम्बूद्वीपतुल्यायामविष्कम्भा योजन सहस्रावगाहा बुद्धघा कुसूलाश्चत्वारः कर्तव्या: । तत्र प्रथमोऽनवस्थिताख्यः । शलाका प्रतिशलाका महाशलाकाख्यास्त्रयोऽवस्थिताः । अत्र द्वौ सर्षपौ प्रक्षिप्तौ । जघन्यमेतत्सङ्ख्यं यप्रमारणम् तमनवस्थितं सर्षपैः पूर्णं कृत्वा गृहीत्वा च कश्चिदेव एकैकं सर्वपमेकैकस्मिन् द्वीपे समुद्रे च यदि प्रक्षिपेत्तेन विधिना स रिक्तः कर्तव्यः । रिक्त इति शलाकाकुसू एकं सर्षपं प्रक्षिपेत् । यत्रान्त्यः सर्षपो निक्षिप्तस्तमवधिं कृत्वा अनवस्थितं कुसूलं परिकल्प्य सर्षपैः पूर्णं कृत्वा ततः परेषु द्वीपसमुद्र ष्वकै कसर्षपप्रदानेन स रिक्तः कर्तव्यः । रिक्त इति शलाकाकुसूले पुनरेकं प्रक्षिपेत् । अनेन विधिनाऽनवस्थित कुसूलपरिवर्धनेन शलाकाकुले पूर्णे । उनमें द्रव्य प्रमाण के दो भेद हैं- संख्या प्रमाण और उपमा प्रमाण । संख्या प्रमाण के तीन भेद हैं संख्येय, असंख्येय और अनन्त । उनमें भी संख्येय प्रमाण पुनः तीन भेद वाला है । और असंख्येय तथा अनन्त प्रमाण नौ प्रकार का जानना चाहिये । जो संख्य प्रमाण है वह जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है । इस संख्येय प्रमाण को जानने के लिये जम्बूद्वीप के समान आयाम विष्कंभ वाले एक हजार योजन गहरे चार कुसूल बुद्धि से रचने चाहिये । पहले कुसूल का नाम अनवस्था, दूसरा शलाका, तीसरा प्रतिशलाका और चौथा महाशलाका नाम का कुसूल है । इनमें शलाकादि तीन अवस्थित हैं । पहले अनवस्थित कुसूल में दो सरसों डाली यह जघन्य संख्येय प्रमाण है [ अर्थात् दो जघन्य संख्या है ] उस कुसूल अर्थात् कुण्ड को सरसों से भर दिया है फिर कोई देव उक्त सर्व सरसों को लेकर एक एक सरसों को एक एक द्वीप और सागर में डालता गया, ऐसा करते करते उक्त कुण्ड खाली हो गया । तब एक सरसों शलाका कुसूल में डाल देवे । जिस द्वीपादि में अन्तिम सरसों डाली उतना बड़ा दूसरा अनवस्थित कुसूल बुद्धि में कल्पित किया सरसों से भर दिया और उन सरसों को लेकर आगे के द्वीपादि में एक एक सरसों डालते हुए उस कुण्ड को रिक्त करना चाहिये । रिक्त हुआ तब एक सरसों शलाका नाम वाले कुण्ड में डालो । जहां पर अंतिम सरसों डाली उस प्रमाण वाला अनवस्था कुण्ड बनाया सरसों से पूरा भरा और वहां से आगे के द्वीप सागरों में एक एक सरसों डालकर रिक्त किया । जब रिक्त हुआ तब एक सरसों शलाका कुसूल में डाला । इस विधि से अनवस्थित कुसूल को बढ़ा बढ़ा के शलाका कुसूल पूर्ण भरा तब एक सरसों प्रतिशलाका
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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