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________________ १८२] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती त्वमिति विशेषोऽत्र द्रष्टव्यः । अत्र कश्चिदाह-यदि प्रोक्तलक्षणविशेषसद्भावाद्भरतादीनामेव कर्मभूमित्वं प्रतिपाद्यते तर्हि स्वयंभूरमणजमत्स्यविशेषाणां कथं सप्तमनरकगमनमित्युच्यते ? स्वयम्भूरमणद्वीपमध्येऽन्तर्वीपार्धकारी मानुषोत्तराकृतिः स्वयंप्रभनगवरो नाम नगो व्यवस्थितः । तस्याग्भिागे आमानुषोत्तराद्भोगभूमि विभागः । तत्र चतुर्गुणस्थानतिनस्तिर्यञ्चः सन्ति । परभागेत्वालोकान्ताकर्मभूमिविभागस्तत्र च पञ्चमगुणस्थानवतिनस्तिर्यञ्चः सन्ति । ततस्तस्य कर्मभूमित्वान्नोक्तदोष अन्तर द्वीपों में होने वाले मनुष्य कर्मभूमि के मनुष्यों के समान मरकर चारों गति में जाते हैं। शंका–उक्त लक्षण का सदभाव होने से भरतादि क्षेत्रों को ही कर्म भूमि कहा जाय तो स्वयंभूरमण नाम के अन्तिम समुद्र में होने वाले मत्स्य विशेष सातवें नरकमें जाते हैं यह आगम वाक्य कैसे सिद्ध होगा ? ___समाधान-स्वयंभूरमण समुद्र के पहले स्वयंभूरमण द्वीप आता है इस द्वीप के बहुमध्य भाग में मानुषोत्तर पर्वत के समान वलयाकृति स्वयंप्रभ नाम का पर्वत है इसके कारण स्वयंभूरमण द्वीप के दो भाग होते हैं उसके उरले भाग से लेकर इधर मानुषोत्तर पर्वत तक भोग भूमियां हैं । उनमें चार गुणस्थान वाले तिर्यंच जीव होते हैं। और उक्त स्वयंप्रभ पर्वत के परले भाग से लेकर लोकान्त तक कर्म भूमिका विभाग है, उनमें पांचवें गुणस्थान वाले तिर्यंच होते हैं अर्थात् प्रथम से लेकर पंचम गुणस्थान तक पांच गुणस्थान यहां के तिर्यञ्चों के संभव हैं अतः स्वयंभूरमण द्वीप का आधा भाग और स्वयंभूरमण समुद्र के कर्म भूमिपना घटित होने से उक्त दोष नहीं आता। यदि ऐसी बात नहीं होती तो आगम में स्वयंभूरमण द्वीप और समद्रवर्ती जीवों के तथा विदेहादि में होने वाले की पूर्वकोटी आयु और अन्यत्र मानुषोत्तर से आगे के द्वीपों में होनेवाले तिर्यञ्चों की [ तथा देवकुरु आदि के मनुष्य तिर्यंचों की] असंख्यात वर्ष की आयु होती है ऐसा प्रतिपादन किया है वह कैसे घटित होता? भावार्थ-ढाई द्वीप संबधी पंद्रह कर्मभूमिज जीवों की उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटी की है और जघन्य आयु अन्तमुहूर्त की है। मध्यलोक के असंख्यात द्वीप और सागरों में अंतिम द्वीप स्वयंभूरमण और अंतिम स्वयंभूरमण सागर है। इसमें जो स्वयंभूरमण द्वीप है उसके स्वयंप्रभ नाम के पर्वत द्वारा दो भाग होते हैं उनमें परला भाग और संपूर्ण स्वयंभूरमण सागर इनमें कर्म भूमि सदृश व्यवस्था है, इनमें होने वाले तिर्यंचों के पूर्वकोटी की
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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