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तृतीयोऽध्यायः
भरत रावत विदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ।। ३७ ।।
भरता ऐरावता विदेहाश्च पंच पंचैता भूमयः कर्मभूमय इति व्यपदिश्यन्ते । विदेहग्रहणाद्द ेवकुरुतरकुरूणां कर्मभूमित्वे प्राप्ते तत्प्रतिषेधार्थमन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्य इति कृतम् । अन्यत्रशब्देन वर्जनार्थेन योगाद्द वकुरूत्तरकुरुभ्य इत्यत्र पंचमीविधानमिष्टम् । देवकुरवश्चोत्तरकुरवश्च देवकुरूत्तरकुरवस्तान्वर्जयित्वेत्यर्थः। कथं भरतादीनां पंचदशानां कर्मभूमित्वमिति चेत्प्रकृष्टस्य शुभाशुभकर्मणोऽधिष्ठानत्वादिति ब्रूमः । सप्तमनरक प्रापणस्याशुभस्य कर्मणः सर्वार्थसिद्धयादिप्रापणस्य शुभस्य च कर्मणो भरतादिष्वेवोपार्जनं । कृष्यादिकर्मणः पात्रदानादियुक्तस्य तत्रैवारम्भात् । तन्निमित्तस्यात्मविशेषपरिरणामविशेषस्यैतत्क्षेत्रविशेषापेक्षत्वात्कर्मणाधिष्ठिता भूमयः कर्मभूमय इति संज्ञायन्ते । सामर्थ्यादितरा देवकुरूत्तरकुरु हैमवतहरिवर्ष रम्यक हैरण्यवता अन्तरद्वीपाश्च कल्पवृक्षादिकल्पिता भोगानुभवनविषयत्वादभोगभूमय इति गम्यन्ते । केवलं कर्मभूमिसमीपवर्तिष्वन्तरद्वीपेषु कर्मभूमिवन्मनुष्याणां चातुर्गतिक
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सूत्रार्थ - भरत, ऐरावत, और देवकुरु उत्तरकुरु भागको छोड़कर शेष विदेह ये सब कर्मभूमियां हैं ।
पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमियां कहलाती हैं । केवल विदेह शब्द रखते तो देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र को भो कर्मभूमिपना प्राप्त होता है अतः उसका निषेध करने के लिए 'अन्यत्र देवकुरुत्तर कुरुभ्यः' ऐसा सूत्र में वाक्य कहा है । अन्यत्र शब्द वर्जन अर्थ में है उसके योग में 'देवकुरुत्तर कुरुभ्यः' ऐसी पंचमी विभक्ति हुई है ।
प्रश्न – इन भरतादि पंद्रह क्षेत्रों की कर्मभूमि संज्ञा किस कारण से है ?
उत्तर— उत्कृष्ट शुभ कर्म और उत्कृष्ट अशुभ कर्म का अधिष्ठान होने से इन क्षेत्रों की कर्मभूमि संज्ञा है । सातवें नरक के प्राप्ति कारणभूत अशुभ कर्म और सर्वार्थसिद्धि आदि के प्राप्ति के कारणभूत शुभ कर्म का उपार्जन भरतादि क्षेत्रों में ही होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में ही पात्रदानादि से युक्त कृषि आदि क्रियायें संपन्न होती हैं । और उन क्रियाओं के निमित्तभूत आत्मा के परिणाम विशेष इन भरतादि क्षेत्र की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होते हैं, अत: 'कर्म से अधिष्ठित भूमि' कर्म भूमि नाम से कही जाती है । तथा सामर्थ्य से इतर जो देवकुरु, उत्तरकुरू, हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यवत् क्षेत्र और अन्तर द्वीप हैं ये कल्पवृक्षों द्वारा कल्पित भोगों के अनुभवन के विषय होने से 'भोगभूमि' कहलाते हैं । विशेषता यह है कि कर्मभूमि के निकटवर्ती