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________________ १८० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती अष्टचत्वारिंशद्भवन्ति । तथा कालोदेप्युभयोस्तटयोरष्टचत्वारिंशद्विज्ञेयाः । सर्वे समुदिताः षण्णवतिसवया जायन्ते । तत्र दिक्षु द्वीपा वेदिकायास्तिर्यक्पञ्चयोजनशतानि प्रविश्य भवन्ति । विदिक्ष्वन्तरेषु च द्वीपाः पञ्चाशेषु पञ्चयोजनशतेषु गतेषु भवन्ति । शैलान्तेषु द्वीपाः षट्सु योजनशतेषु गतेषु भवन्ति । दिक्षु द्वीपा: शतयोजनविस्ताराः । विदिक्ष्वन्तरेषु च द्वीपाः पञ्चाशद्योजनविस्ताराः । शैलान्तेषु द्वीपा: पञ्चविंशतियोजनविस्ताराः। ते चतुर्विंशतिरपि द्वीपा जलतलादेकयोजनोत्सेधाः । तथा कालोदेपि वेदितव्याः । तेष्वन्तरद्वीपेषु भवा म्लेच्छा एकोरुकादयो मृत्पुष्पफलाहारा गुहावृक्षवासिनः । सर्वे ते पल्योपमायुषः प्रोक्ताः । कर्मभूमिजास्तु । शकयवनशबरपुलिन्दादयः । काः पुनः कर्मभूमय इत्याह द्वीप हैं ऐसे लवण समुद्र में अड़तालीस अन्तर्वीप हैं। तथा कालोदधि समुद्र के उभय तटों में इसीतरह अड़तालीस द्वीप हैं सर्व मिलाकर छियानवे अन्तर्दीप होते हैं उनमें जो दिशा संबंधी दीप हैं वे लवण समुद्र के तट की वेदिका से तिरछे पांच सौ योजन जाकर आते हैं। विदिशा संबंधी और अन्तराल संबंधी जो द्वीप हैं वे पांच सौ पचास योजन जाकर होते हैं [ त्रिलोकसार में अन्तराल के द्वीपों को ५५० योजन जाकर माना है और विदिशा के द्वीपों को ५०० यो० जाकर माना है] हिमवान आदि पर्वतों के अन्त भाग संबंधी लवण समुद्रस्थ द्वीप तट से छह सौ योजन जाकर आते हैं । दिशा संबंधी जो द्वीप हैं वे सौ योजन विस्तार वाले हैं। विदिशा संबंधी और अन्तराल संबंधी जो द्वीप हैं वे पचास योजन विस्तृत हैं त्रिलोकसार में विदिशा संबंधी द्वीप ५५ यो० विस्तार वाले माने हैं हिमवान आदि पर्वत के अन्त भाग सम्बन्धी जो द्वीप हैं वे पच्चीस योजन विस्तार वाले हैं । ये चौवीस द्वीप जल तल से एक योजन उत्सेध वाले हैं। उसीप्रकार कालोदधि संबधी अन्तर द्वीपों का वर्णन जानना चाहिये। ये सब अन्तर द्वीप हैं इनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य अन्तरद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं । एक पैर आदि विचित्र शरीर धारी ये म्लेच्छ कोई तो मिट्टी का भोजन करते हैं और कोई पुष्प फलाहारी होते हैं, कोई गुफा निवासी तो कोई वृक्ष निवासी होते हैं ये सर्व ही मनुष्य एक पल्य की आयु वाले हैं । कर्मभूमिज म्लेच्छ शक, यवन, शबर पुलिन्द आदि हैं। कर्म भूमियां कौनसी हैं यह बतलाते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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