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________________ तृतीयोऽध्यायः आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३६ ॥ गुणैर्गुणवद्भिर्वाऽन्ते गम्यन्ते सेव्यन्त इत्यार्यास्तद्विपरीतलक्षणाम्लेच्छाः । उभयत्राऽवान्तरबहुवख्यापनार्थी बहुवचननिर्देश: । तत्रार्याः प्राप्तर्द्धयोऽप्राप्तर्द्धयश्चेति द्विविधाः । तत्रापि प्राप्तर्द्धयः सप्तधा - बुद्धितपोविक्रियौषध बल र सक्षेत्रर्द्धप्राप्तिभेदात् । प्रप्राप्तर्द्धयः पञ्चधा - जातिक्षेत्रकर्म दर्शनचारित्रनिमित्तभेदात् । म्लेच्छा द्विविधा अन्तरद्वीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति । तत्रान्तरद्वीपा लवणोदधेरष्टासु दिक्ष्वष्टौ । तदन्तरेचाष्टौ । हिमवच्छिखरिणोरुभयोश्च विजयार्द्धयोरन्तेष्वष्टौ । सर्वे समुदिता [ १७९ सूत्रार्थ – आर्य और म्लेच्छ ऐसे मनुष्यों के दो भेद हैं । गुण अथवा गुणवानों द्वारा जो प्राप्त होते हैं सेवित होते हैं वे आर्य कहलाते हैं । उससे विपरीत लक्षणवाले गुणवानों से सेवित जो नहीं होते वे म्लेच्छ हैं । आर्य म्लेच्छ दोनों की अवान्तर जाति भेदों को बतलाने के लिये बहुवचन का प्रयोग हुआ है । उनमें आर्य दो प्रकार के हैं ऋद्धि प्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य । ऋद्धि प्राप्त आर्य सात प्रकार के हैं । बुद्धि तप, विक्रिया, औषध, बल, रस और क्षत्रद्धि ये सात ऋद्धियां हैं और इनसे संपन्न आर्य सात प्रकार के हैं । बुद्धि ऋद्धि सहित मुनिराज बुद्धि ऋद्धि प्राप्त आर्य हैं । तप ऋद्धि वाले मुनि तप ऋद्धि प्राप्त आर्य हैं इसप्रकार ऋद्धिधारी मुनिगण ऋद्धि प्राप्त आर्य कहलाते हैं । ऋद्धि रहित आर्य पांच प्रकार के हैं जाति आर्य, क्षेत्रार्य, कमर्य, दर्शनार्य, और चारित्र आर्य । भावार्थ - इक्ष्वाकु आदि वंशज मनुष्य जाति आर्य हैं । आर्य क्षेत्र में उत्पन्न मनुष्य क्षेत्र की अपेक्षा क्षेत्र आर्य हैं । कर्म क्रिया जिनकी उच्च हैं वे कर्म आर्य हैं। सम्यक्त्व युक्त मनुष्य दर्शन आर्य हैं । संयमधारी मनुष्य चारित्र आर्य हैं । म्लेच्छ दो प्रकार के हैं - अन्तर द्वीपज म्लेच्छ और कर्मभूमिज म्लेच्छ । उनमें अन्तर द्वीपज म्लेच्छों का कथन करते हैं— लवण समुद्र के आठ दिशा संबंधी आठ अन्तरद्वीप हैं । तथा उन आठों के अन्तरालों में भी आठ अन्तर द्वीप हैं । पुनः हिमवान के उभय सिरे के निकटस्थ लवण समुद्र में दो, शिखरी पर्वत के सिरे के निकटस्थ लवण समुद्र में दो भरत और ऐरावत के दो विजयार्ध के दो दो सिरे के निकटस्थ लवण समुद्र में दो दो इसप्रकार कुल मिलाकर चौवीस अन्तरद्वीप हुए ये लवण समुद्र के इसतरफ के तट संबंधी द्वीप हैं इसीप्रकार उस तरफ के तट संबंधी चौवीस अन्त
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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