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________________ १७८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गाहः (४३०१) चतुर्विंशत्यधिकयोजनशतचतुष्टयं (४२४) तस्योपरि विस्तार । द्वाविंशत्यधिकानि योजनदशसहस्राणि (१००२२) मूले विस्तारः । त्यधिकविंशत्युपेतानि योजनसप्तशतानि (७२३) मध्ये विस्तारः । नास्मादुत्तरं कदाचिदपि विद्याधरा ऋद्धिप्राप्ता अपि मनुष्या गच्छन्त्यन्यत्रोपपादसमुद्घाताभ्याम् । ततोऽस्याऽन्वर्थसंज्ञा । यस्मान्मानुषोत्तरादुत्तरं नरा न सन्ति तस्मान्न ततो बहिर्भरतादिव्यवस्थाऽस्तीति । जम्बूद्वीपादिष्वर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोर्मनुष्या वेदितव्याः । ते च द्विप्रकारा भवन्तीति तत्प्रतिपादनार्थमाह और एक कोस की है। इस पर्वत का उपरिम विस्तार चार सौ चौवीस योजन का है । इसी का मूल में विस्तार दस हजार बावीस योजन का है । इसीका मध्य भाग में विस्तार सात सौ तेईस योजन है । इस मानुषोत्तर पर्वत के आगे विद्याधर मनुष्य तथा ऋद्धिधारी मुनिगण भी कदाचित् भी नहीं जा सकते हैं। उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात को छोड़कर अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत के आगे के द्वीपादि से मरकर कोई जीव यहां ढाई द्वीप में मनुष्य पर्याय में जन्म लेने को विग्रह गति से आरहा है उस वक्त उस जीव के मनुष्य गति मनुष्यायु का उदय आ चुका है और अभी वह ढाई द्वीप के बाहर है इस उपपाद की अपेक्षा मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत के बाहर है ऐसा कहा जाता है तथा कोई मनुष्य ढाई द्वीप में मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले मारणान्तिक समुद्घात करके ढाई द्वीप के बाहर के द्वीपों में कहीं जन्म लेने के स्थान पर गया उस वक्त उस मनुष्य के आत्म प्रदेश मानुष्योत्तर शैल के बाहर हैं इस दृष्टि से मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत से बाहर है ऐसा कहते हैं। तथा केवली समुद्घात करते हैं उस वक्त उनके आत्मप्रदेश सर्वत्र लोक में फैलने हैं इस दृष्टि से मानव ढाई द्वीप के बाहर है। उपर्युक्त अवस्था विशेष को छोड़कर अन्य समय में कभी भी मनुष्य मानुषोत्तर के बाहर नहीं रहते हैं। इसप्रकार जिससे उत्तर में—आगे के भाग में मनुष्य कभी भी नहीं पाये जाते अतः इस पर्वत की अन्वर्थसंज्ञा "मानुषोत्तर" है। इसी कारण से इसके बाह्य भाग में भरतादि क्षेत्रादि की व्यवस्था नहीं है । जम्बूद्वीप आदि ढाई द्वीप और दो समुद्र [ लवणोद कालोद ] इनमें ही मनुष्य निवास करते हैं। अब मनुष्यों के दो प्रकार होते हैं उनका प्रतिपादन करते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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