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तृतीयोऽध्यायः
[ १७७ किमर्थं भरतादिव्यवस्था पुष्कराध एव कथ्यते ? न पुनः कृत्स्न एव पुष्करद्वीप ? इत्यत्रोच्यते
प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ ३५ ॥ प्राक्छब्दः पूर्ववाची। पुष्करद्वीपबहुमध्यदेशभावी वलयवृत्तो मानुषोत्तरो नाम शैलोऽस्ति । तस्यैकविंशत्यधिकसप्तशतोपेतं (१७२१) योजनैकसहस्रमुत्सेधः । सक्रोशत्रिंशदधिकयोजनशतचतुष्टयमव
है उसको आगमानुसार आगम के ज्ञाता पुरुषों द्वारा लगाना चाहिये-जानना चाहिये ।
धातको खण्ड के भरत क्षेत्रों का त्रिविध विष्कंभ
आदि विष्कंभ
मध्य विष्कंभ
बाह्य विष्कंभ
महा योजन ६६१४३३६
महायोजन १२५८१
महायोजन १८५४७३१५
पुष्करा के भरत क्षेत्रों का त्रिविध विष्कंभ
आदि विष्कंभ
मध्य विष्कंभ
बाह्य विष्कंभ
महायोजन ४१५७९३१३
महायोजन ५३५१२३
महायोजन ६५४४६
शंका-भरतादि क्षेत्र आदि की व्यवस्था आधे पुष्कर में ही क्यों कहते हैं ? सकल पुष्कर द्वीप में यह व्यवस्था क्यों नहीं बताते ?
समाधान-अब इसीको अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैंसूत्रार्थ-मानुषोत्तर नाम के पर्वत से पहले तक ही मनुष्य होते हैं ।
प्राक शब्द पहले का वाची है । पुष्कर द्वीप के ठीक मध्य भाग में वलयाकार गोल चूड़ी के आकार का मानुषोत्तर नाम का पर्वत है। उसकी ऊंचाई एक हजार सात सौ इक्कीस योजन की है [ १७२१ ] इस शैल की नींव चार सौ तीस योजन