SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती द्विगुणः स्यादवगाहोत्सेधौ तत्तुल्यौ ज्ञेयौ । तत्रैकोनाशीत्यधिकपञ्चशतोपेतैकचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वादशाधिकशतद्वयीयं त्रिसप्तत्यधिकं भागशतं च योजनस्य (४१५७९३७३) पुष्कराधै भरतस्याभ्यन्तरविष्कम्भः । द्वादशाधिकपञ्चशतोपेतानि त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि द्वादशाधिकशतद्वयीयं नवनवत्यधिकभागशतं च योजनस्य (५३५१२३६) भरतस्य मध्यविष्कम्भः । षट्चत्वारिंशदधिकचतुःशतोपेतानि पञ्चषष्टियोजनसहस्राणि द्वादशाधिकशतद्वयीयं त्रयोदशभागाश्च योजनस्य (६५४४६३१३) भरतस्य बाह्यविष्कम्भः । एकोनविंशत्यधिकत्रिशतोपेतषट्षष्टिसहस्रान्वित योजनैक लक्षं द्वादशाधिकशतद्वयीयं षट्पञ्चाशद्भागाश्च योजनस्य (१६६३१९१३) हैमवताभ्यन्तरविष्कम्भः । एकषष्ट यधिकचतुर्दशसहस्रोपेतयोजनलक्षद्वयं द्वादशाधिकशतद्वयीयं षष्ट यधिकभागशतं च योजनस्य (२१४०६१३६१) हैमवतमध्यविष्कम्भः । चतुरशीत्यधिकसहशतोपेतैकषष्टिसहस्रान्वितयोजनलक्षद्वयं द्वादशाधिकशतद्वयीयं पञ्चाशद्भागाश्च योजनस्य (२६१७८४३५३) हैमवतबाह्यविष्कंभः । अत्र स्ववर्षाद्वर्षश्चतुर्गुणो वर्षभराच्च वर्षधरश्चतर्गणो वेदितव्यः । तथान्यदप्यागमानुसारेण तज्ज्ञैर्योज्यम । अत्र कश्चिदाह धातकी खण्ड में दुगुणा विस्तार है पुष्करार्ध में वही दुगुणा विस्तार लेना [ दुगुणा से ज्यादा है ] केवल अवगाह और उत्सेध समान है। __अब इस पुष्कराध के भरतादि का विस्तार बतलाते हैं-इकतालीस हजार पांच सौ उन्नासी योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से एक सौ तिहत्तर भाग [ ४१५७६३१३ ] प्रमाण पुष्करार्ध के भरत का अभ्यन्तर विष्कंभ जानना चाहिये । इसीका मध्य विष्कंभ त्रेपन हजार पांच सौ बारह योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से एक सौ निन्यानवे भाग प्रमाण है [ ५३५१२३8 ] इसीका बाह्य विस्तार पैंसठ हजार चार सौ छियालीस योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से तेरह भाग प्रमाण है [ ६५४४६-१] हैमवत क्षेत्र का अभ्यन्तर विस्तार एक लाख छयासठ हजार तीन सौ उन्नीस योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से छप्पन भाग है [ १६६३१६५६ ] इसी क्षेत्र का मध्य विस्तार दो लाख चौदह हजार इकसठ योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से एक सौ साठ भाग है । [२१४०६११०] इसी क्षेत्र का बाह्य विष्कंभ दो लाख इकसठ हजार सात सौ चौरासी योजन और एक योजन के दो सौ बारह भागों में से पचास भाग प्रमाण है [ २६१७८४.५० ] इस द्वीप में भी अपने अपने क्षेत्र से अगला क्षेत्र चौगुणा विस्तृत है और अपने अपने पर्वत से अगला पर्वत चौगुणा विस्तृत है । इनके अतिरिक्त शेष जो भी कथन इस विषय का
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy