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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १७५ भूमितले विष्कम्भश्चतुर्नवतियोजनशतान्येव (९४००)। अन्यदप्यागमाविरोधेन योजनीयम् । धातकीखंडपरिक्षेपी कालोदः समुद्रष्टङ्कच्छिन्नतीर्थोऽष्टयोजनशतसहस्रविष्कम्भः । कालोदपरिक्षेपी पुष्करद्वीपः षोडशयोजनशतसहस्रवलयविष्कम्भः। तत्र धातकीखंडवर्षाद्यपेक्षया वर्षादीनां द्विगुणत्वप्रसंगे विशेषावधारणार्थमाह पुष्करार्धे च ॥३४॥ जम्बूवृक्षस्थानीयसपरिवारपुष्करेणोपलक्षितो द्वीपः पुष्करः । तस्यवलयाकृतिमानुषोत्तरशैलेन विभक्तस्य पुष्करस्यार्धं पुष्करार्धं । तस्मिन्पुष्करार्धे जम्बूद्वीपभरतादयो द्विर्मीयन्त इत्येतस्यार्थस्यात्राभिसम्बन्धार्थश्चशब्दः । तेन यथा धातकीखण्डे जम्बूद्वीपभरतादयो द्विगुणसङ्ख्या व्याख्याता स्तथा पुष्करार्धे च जम्बूद्वीपस्येव भरतादयो द्विगुणसङ्ख्या व्याख्यायन्ते न धातकीखण्डस्येत्येतसिद्धम् । जम्बूद्वीपवक्षारनदीह्रदकुण्डपुष्करादीनां विस्तारो यथा धातकीखण्डे द्विगुणस्तथा पुष्कराधे च स एव पर विस्तार चौरानवे सौ है [ ६४०० ] अन्य भी जो कथन इन पर्वत क्षेत्रादि का है वह सर्व आगमानुसार लगाना चाहिये-जानना चाहिये । धातकी खण्ड को वेष्टित करके कालोदधि है इसका तीर्थ-तट भाग टांकी से कटे हुए के समान है। यह समुद्र आठ लाख योजन विस्तृत है । कालोदधि को वेष्टित कर पुष्करार्ध द्वीप अवस्थित है, यह सोलह लाख योजन प्रमाण है । धातकी खण्ड के क्षेत्रादि की अपेक्षा पुष्कराध के क्षेत्रादि दुगुणे होने का प्रसंग का निरसन कर विशेष का अवधारण अग्रिम सूत्र द्वारा करते हैं सूत्रार्थ-पुष्करार्ध द्वीप में भी धातकी खण्डवत् दो भरतादिक हैं । जम्बू वृक्ष के स्थानीय सपरिवार पुष्कर नामा वृक्ष है उससे उपलक्षित द्वीप पुष्कर द्वीप कहलाता है । उस पुष्कर द्वीप के वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा दो भाग हो गये हैं, उन दो भागों में से पहले भाग में भरतादि हैं अतः पुष्करार्ध कहा है । पुष्करार्ध में जम्बूद्वीप के भरतादि से दुगुणपना है इस अर्थ का यहां संबंध कराने के लिये च शब्द आया है। जैसे धातकी खण्ड में जम्बूद्वीप के भरतादिक से दुगुण संख्या कही वैसे पुष्करार्ध में भी जम्बूद्वीप के भरतादि के समान दुगुणी संख्या लेना धातकी खण्ड के समान नहीं लेना । भाव यह है कि जैसे धातकी खण्ड में दो भरत दो हिमवान दो हैमवत् आदि हैं वैसे पुष्करार्ध में भी दो भरत दो हिमवान आदि हैं। जम्बूद्वीप में वक्षार, नदी, कुण्ड, ह्रद, कमल आदि का जैसा विस्तार है और जैसा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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