________________
तृतीयोऽध्यायः
[ १६९ भवा मनुष्या हैमवतकाः । हरिवर्षे भवा हारिवर्षकाः । देवकुरुषु भवा दैवकुरवकाः । हैमवतकाश्च हारिवर्षकाश्च दैवकुरवकाश्च हैमवतक हारिवर्षकदैवकुरवकाः। एकादयः सङ्ख्याशब्दास्त्रयो हैमवतकादयश्च त्रयस्तत्र यथासङ्घयमभिसम्बन्धः क्रियते । तत्र पञ्चसु हैमवतेषु सुषमदुःषमा सदाऽवस्थिता । तत्रत्या जना उत्कर्षेणैकपल्योपमायुषो जघन्येन पूर्वकोट्यायुषो द्विचापसहस्रोत्सेधाश्चतुर्थभक्ताहारा नीलोत्पलवर्णाः । पञ्चसु हरिवर्षेषु सुषमा सदावस्थिता । तत्र नरा उत्कर्षेण द्विपल्योपमायुषो जघन्येनैकपल्यायुषश्चतुश्चापसहस्रोच्छायाः षष्ठभक्ताहाराः शङ्खवर्णाः । पञ्चसु देवकुरुषु सुषमसुषमा सदावस्थिता। तत्र लोका उत्कर्षेण त्रिपल्यायुषो जघन्येन द्विपल्योपमायुषः षट्चापसहस्रोत्सेधा अष्टमभक्ताहाराः कनकवर्णाः । ततो जघन्यमध्यमोत्कृष्टभोगभूमिषु मनुजास्तिर्यञ्चश्च समायुषो न सन्तीति वेदितव्यम् । अथोत्तराः किंस्थितय इत्याह
हैमवतक कहलाते हैं, हरिवर्ष में होनेवाले हारिवर्षक और देवकुरु में होने वाले दैवकुरुवक कहलाते हैं। इन पदों में द्वन्द्व समास हैं। एक आदि संख्या वाची तीन शब्द हैमवतक आदि तीन के साथ क्रम से संबद्ध हैं। उनमें पांच हैमवतों में [ ढाई द्वीप संबंधी ] सुषम दुःषमा काल सदा अवस्थित है । वहां के लोग उत्कृष्ट से एक पल्य
और जघन्य से पूर्व कोटी आयुवाले होते हैं, दो हजार धनुष ऊचे शरीर वाले, एक दिन के अंतराल से भोजन करने वाले होते हैं, इनका नील कमलवत् वर्ण होता है। पांचों ही हरिवर्ष क्षेत्रों में सुषमा काल सदा अवस्थित है उनमें उत्कृष्ट से दो पल्य की और जघन्य से एक पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं चार हजार धनुष ऊंचे, दो दिनों के बाद आहार करने वाले तथा शंखवत् धवल वर्ण वाले होते हैं । पांच देवकुरु में सुषम सुषमा काल सदा अवस्थित है। उनमें लोक उत्कृष्ट से तीन पल्य और जघन्य से दो पल्य की आयुवाले हैं । छह हजार धनुष ऊंचे, तीन दिन बाद भोजन करने वाले और सुवर्ण वर्ण वाले हैं । अतः जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भोग भूमियों में मनुष्य और तिर्यंच समान आयुवाले नहीं होते यह सिद्ध होता है ( यहां पर विशेष ज्ञातव्य यह है कि राजवात्तिक ग्रन्थ में इन भोगभूमिजों की जघन्य उत्कृष्ट आयु नहीं बताई अर्थात् पूर्व कोटी से लेकर पल्य तक की आयु का कथन उक्त ग्रन्थ में नहीं है।)
[अढाई द्वीपों के शाश्वत भोगभूमि संबंधी विवरण का चार्ट आगे देखिये ]