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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
सर्पिण्यवसर्पिण्योस्समुदितयोः कल्प इति संज्ञा भवति । ततः षट्कालयोत्सपिण्याऽवसर्पिण्या च हेतु भूतया भरते ऐरावते च लोकानामुपभोगायुः परिमाणोत्सेधादिवृद्धिह्रासौ भवत इति समुदायार्थः । rry भूमिषु कावस्थेत्याह
ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ।। २८ ।।
भूमिशब्देन तज्जातलोका उपचारादुच्यन्ते । ताभ्यां भरतैरावताभ्यामन्या भूमयोऽवस्थितकालत्वादवस्थिताः । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यसम्भवे तत्र जनानां वृद्धिहासाभावादित्यर्थः । किं स्थितयस्तनिवासिनो जना इत्याह
एक द्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवत कहारिवर्षक दैव कुरवकाः ।। २६ ।।
एकं च च त्रीणि चैकद्वित्रीणि । एकद्वित्रीणि च तानि पत्योपमानि चैकद्वित्रिपल्योपमानि । तानि यथासङ्खनोत्कृष्टा स्थितिर्जीवितपरिमाणं येषां नराणां ते एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयः । हैमवते
में होता है । इन दोनों उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल मिलकर कल्प संज्ञा वाला काल बनता है । इसप्रकार छह काल वाले उत्सर्पिणी अवसर्पिणी द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्र में लोकों की आयु, उपभोग, उत्सेध आदि में वृद्धि तथा ह्रास होता है ।
इतर भूमियों में क्या व्यवस्था है यह बतलाते हैं
सूत्रार्थ - उन भरत ऐरावत क्षेत्रों को छोड़कर शेष भूमियां अवस्थित हैं ।
भूमि शब्द से उसमें होनेवाले लोक उपचार से ग्रहण किये जाते हैं । उन भरत ऐरावतों से इतर भूमियां अवस्थित काल वाली हैं अतः अवस्थित हैं, अर्थात् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल उक्त क्षेत्रों में नहीं है अतः वहां के लोकों के आयु आदि में हानि वृद्धि नहीं होती है ।
अब प्रश्न होता है कि वहां निवास करने वाले जीवों की आयु कितनी है ? सो इसका उत्तर अग्रिम सूत्र द्वारा देते हैं
सूत्रार्थ - एक पल्य, दो पल्य, तीन पल्य प्रमाण क्रम से आयुवाले हैमवतक, हरिवर्षक और दैवकुरवक मनुष्य होते हैं । एक आदि पदों का द्वन्द्व गर्भित कर्मधारय युक्त बहुब्रीहि समास है । एक दो और तीन पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु है जिनकी वे मनुष्य एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयः कहलाते हैं । हैमवत क्षेत्र में होनेवाले मनुष्य