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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १६७ वसर्पिण्योस्ते षट्समे। ताभ्यां षट्समाभ्यामुपभोगादिभिरुत्सर्पणशीला उत्सपिणी । अवसर्पणशीला अवसर्पिणी । उत्सर्पिणी चावसर्पिणी चोत्सपिण्यवसर्पिण्यौ कालौ। ताभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् । हेतुनिर्देशोऽयम् । तत्राऽवसर्पिणी षड्विधा–सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दु:षमा, अतिदुःषमा चेति । तथोत्सपिण्यप्यतिदुःषमाद्या सुषमसुषमान्ता षड्विधैव । तत्र चतुःसागरोपमकोटीकोटीप्रमिता सुषमसुषमा। तदादौ मनुष्या उत्तरकुरुमनुष्यतुल्याः । ततो हानिक्रमेण त्रिसागरोपमकोटीकोटीपरिमाणा सुषमा भवति । तदादौ मनुजा हरिवर्षमनुष्यसमाः। तथा द्विसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा सुषमदुःषमा भवति । तदादौ मनुष्या हैमवतकजनसमानाः । ततो हानिक्रमेण द्वाचत्वारिंश द्वर्षसहस्रोनैकसागरोपमकोटीकोटीपरिमाणा दु:षमसुषमा स्यात्तदादौ मनुष्या विदेहजनसमानाः । ततः क्रमहानौ सत्यामेकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणा दुःषमा भवति । तदादौ नृणामायुर्विशत्यधिकं वर्षशतम् । सप्तहस्ता उत्सेधः । ततो हानिक्रमेणैकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणातिदुःषमा भवति । तदादौ नराणामायुविंशतिवर्षाणि । हस्तद्वयमङ गुलषट्कं चोत्सेधः । अस्य विपरीतक्रमा उत्सर्पिणी वेदितव्या । एवमुक्तो हानि स्वभाववाली है वह क्रमशः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कहलाती है। इसमें पंचमी विभक्ति है । अवसर्पिणी छह प्रकार की है सुषम सुषमा, सुषमा, सुषम दुःषमा, दुःषम सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा। तथा उत्सर्पिणी के अतिदुःषमा से लेकर सुषम सुषमा तक छह प्रकार हैं। सुषम सुषमा काल चार कोडाकोडी सागर का है । उसके प्रारंभ में उत्तरकुरु भोगभूमि के मनुष्यों के समान मनुष्य होते हैं । आगे आगे अन्त तक हानिक्रम है । सुषमा काल तीन कोडाकोडी सागर का है, इसके प्रारम्भ में मनुष्य हरिवर्ष नाम की मध्यम भोगभूमि के मनुष्यों के समान होते हैं। दो कोडा कोडी सागर प्रमाण वाला सुषम दुःषमा काल है उसके प्रारम्भ में मनुष्य हैमवतक नाम की जघन्य भोगभूमिजों के समान होते हैं। उसके आगे हानि क्रम चलता ही रहता है । इसके अनंतर बियालीस हजार वर्ष कम एक कोडा कोडी सागर का दुःषम सुषमा नाम का काल आता है, उसके आदि में मनुष्य विदेह के समान होते हैं। उसके बाद क्रम से हानि होने पर इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमा काल आता है, उसके आदि में मनुष्यों की आयु एक सौ बीस वर्ष की होती है शरीर सात हाथ ऊंचा रहता है। उसके बाद क्रम से हानि होकर इक्कीस हजार वर्ष का छठा अतिदुःषमा काल आता है, उसके प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु बीस वर्ष की और शरीर ऊंचाई दो हाथ छह अंगुल की रहती है । इस अवसर्पिणी से विपरीत क्रम उत्सर्पिणी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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