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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १६५ वक्ष्यमाणसूत्रस्य चैतत्सङ्खयानयनोपायप्रतिपत्त्यर्थत्वात् । इतरेषां पर्वतक्षेत्राणां विष्कम्भविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥२५॥ ततो भरताद्विगुणो द्विगुणो विस्तारो येषां ते तद्विगुणद्विगुणविस्तारा । वीप्साभिव्यक्तयर्थं द्विगुणशब्दस्य द्विरुच्चारणं कृतम् । वर्षधराः पर्वताः । वर्षाः क्षेत्राणि । वर्षधराश्च वर्षाश्च वर्षधरवर्षाः। ते च किमव साना इत्याह-विदेहान्ताः । विदेहोऽन्तः पर्यन्तो येषां ते विदेहान्ताः पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा वेदितव्याः । भरताद्विगुणो हिमवान्वर्षधरस्त तोऽपि द्विगुणो हैमवतो वर्षस्ततो द्विगुणो महाहिमवान्वर्षधरस्ततो द्विगुणो हरिवर्षस्ततो द्विगुणो निषधो वर्षधरस्ततोऽपि द्विगुणो विदेह इत्येतस्यार्थस्य प्रतिपत्त्यर्थं द्वन्द्वेऽनल्पाचोऽपि वर्षधरशब्दस्यादौ वचनं कृतं विदेहान्तवचनं चेति तात्पर्यार्थः । अथोत्तराः कीदृशा इत्याह समाधान-ऐसी बात नहीं है । जम्बू द्वीप के एक सौ नव्वे वां भाग इतने प्रमाण वाला है ऐसा प्रतिपादन करने वाला यह [ २४ वां ] सूत्र है और आगे का सूत्र कहे गये विस्तार की संख्या को लाने के उपाय स्वरूप है, अत: यह सूत्र व्यर्थ नहीं है । अन्य पर्वत तथा क्षेत्रों के विष्कंभ की प्रतिपत्ति के लिये आगे का सूत्र अवतरित होता है सूत्रार्थ-उस भरत क्षेत्र से दुगुणे दुगुणे विस्तार युक्त पर्वत और क्षेत्र विदेह तक जानने चाहिये। उस भरत से दूना दूना है विस्तार जिनका वे द्विगुण द्विगुण विस्तार वाले कहलाते हैं, वीप्सा अर्थ के द्योतन के लिये द्विगुण शब्द दो बार रखा है। वर्षधर पर्वत कहलाते हैं और क्षेत्र को वर्ष कहा है। इनमें द्वन्द्व समास है। कहां तक यह क्रम है इसके लिये विदेहान्ता कहा है । विदेह पर्यन्त उक्त दूना दूना क्रम जानना चाहिये । भरत से दूने विस्तार वाला हिमवन् कुलाचल है, उससे दूना हैमवत क्षेत्र है, उससे दुगुणा महाहिमवन् पर्वत है, उससे दूना हरिक्षेत्र है, उससे दुगुणा निषध पर्वत है, उससे दूना विदेह है । "वर्षधर वर्षाः" इसमें द्वन्द्व समास है और द्वन्द्व समास में जिस पद में अल्प स्वर-अक्षर होते हैं उस पद का पूर्व निपात होता है यह सामान्य नियम है इस दृष्टि से वर्ष पद प्रथम होना चाहिये किन्तु दूने दूने का क्रम वर्षधर से प्रारंभ होकर विदेह तक चलता है इस अर्थ की प्रतिपत्ति के लिये वर्षधर पद पहले रखा है और "विदेहान्ताः" पद भी दिया है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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