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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
भरतः षविशपञ्चयोजनशतविस्तारः षट्चैकानविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥
भरतो भरतवर्षं इत्यर्थः। षड्भिरधिका विंशतिः षड्विंशतिरधिका येषु तानि षड्विंशानि । तदस्मिन्नधिकमिति सदृशान्ताड्ड इति वर्तमाने विंशतेश्चेत्यनेन डप्रत्ययः । योजनानां शतानि योजन - शतानि । पञ्च च तानि योजनशतानि च पञ्चयोजनशतानि । षड्विंशानि पञ्च योजनशतानि विस्तार उदगपाङ मध्यविष्कम्भो यस्यासौ षड्विंशपञ्चयोजनशतविस्तारो भरतो वेदितव्यः । किमेतावानेव विस्तारो नेत्याह - षट्चैकान्नविंशतिभागा योजनस्येति । एकेनोना विंशतिरेकान्नविंशतिः । एकान्नविंशतिश्च ते भागाश्चैकान्नविंशतिभागाः । कति ? षट् । ते च कस्य ? योजनस्य । एकोनविंशतिभागीकृतस्य प्रमाणयोजनस्य षड्भागा इत्यर्थः । परिभाषानिष्पन्नैः पञ्चभिर्योजनशतैरेकं प्रमाणयोजनं भवति । तेन क्षेत्रादीनां विस्तारादयः प्रमीयन्ते । भरतविष्कम्भस्योत्तरत्र सूत्रद्वारेण प्रतिपा दनादिदमिह सूत्रमनर्थकमिति चेन्न - जम्बूद्वीपनवतिशतभागस्येयत्ताप्रतिपादनार्थत्वादेतस्य सूत्रस्य
रुप्यकूला का अट्ठावीस हजार नदी परिवार है और रक्ता रक्तोदा का चौदह हजार नदी परिवार है ।
अब भरत क्षेत्र के विस्तार का प्रमाण बतलाते हैं
सूत्रार्थ - भरत क्षेत्र पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण विस्तार वाला है । भरत शब्द से भरत नाम का क्षेत्र लेना । छह से अधिक बीस छब्बीस है, और छब्बीस से अधिक है संख्या जिनमें वे षड्वीश हैं | यहां पर " तदस्मिन्नधिकमिति सहशान्ताड्ड : " यह सूत्र वर्त्तमान था किन्तु “विंशतेश्च" इस सूत्र से विंशति शब्द के आगे ड प्रत्यय आया उससे 'ति' का लोप होकर “विंश:” बना है ।" पंचयोजन रात विस्तारः, पद में क्रमशः तत्पुरुष, कर्मधारय और बहुब्रीहि समास हुआ है । इसप्रकार उत्तर दक्षिण में भरत क्षेत्र पांच सौ छव्वीस योजन विस्तार युक्त है । इतना ही विस्तार नहीं किन्तु एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण अधिक है । यहां योजन से प्रमाण योजन लेना पांच सौ उत्सेध योजनों का एक प्रमाण योजन होता है इस प्रमाण योजन से क्षेत्रादि के विस्तार आदि नापे जाते हैं ।
शंका- भरत का विस्तार आगे [ ३२ वें सूत्र में ] सूत्र द्वारा कहा जायगा अतः यह सूत्र व्यर्थ है ?