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( ११ ) दूसरे अध्याय में औपशमिक आदि त्रेपन भावों के वर्णन में नौ क्षायिक भावों का प्रस्तुतीकरण सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण करता है। द्रव्येन्द्रिय के कथन में बाह्य निर्वृत्ति इन्द्रिय संस्थानरूप है ही किन्तु इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से युक्त अपने अपने इन्द्रिय के आकार विशिष्ट आत्म प्रदेशों पर संश्लिष्ट जो सूक्ष्म पुद्गल हैं उन्हें अभ्यन्तर निवृत्ति कहा है। इन्द्रियों के विषय तथा उनके स्वामी का प्रतिपादन औदारिकादि शरीर, उनकी आगे आगे सूक्ष्मता आदि का कथन किया है लब्धि निमित्तक तैजस शरीर के निःसरणरूप और अनिःसरणरूप ऐसे दो भेद किये हैं।
तीसरे अध्याय में प्रारम्भ में लोक का वर्णन उसके अधोलोक आदि के राजूओं का प्रमाण, वातवलयत्रय, नारकियों का दुःख आयु आदि का कथन है। मध्यलोक में, जम्बूद्वीप भरत आदि सात क्षेत्रों को विदेहस्थ सुदर्शनमेरु, देवकुरु, उत्तरकुरु, गजदन्त, बत्तीस देशों के नाम उनकी प्रमुख नगरियां, विभंगा नदियां, वक्षार, कांचरगिरि आदि का सुविस्तृत वर्णन किया गया है ( कुलाचल, पद्मादि सरोवर, श्री आदि देवियां, गंगादि चौदह महानदियों का उद्गम, उत्सर्पिणी आदि काल धातकी खंड तथा पुष्करार्ध में होने वाले क्षेत्र कुलाचल आदि की व्यवस्था मनुष्यों के आर्य और म्लेच्छरूप भेद अन्तर्दीपज म्लेच्छ ( कुभोग भूभिज ) मनुष्य तथा तिर्यंचों की जघन्य उत्कृष्ट आयु का कथन इस अध्याय में है। इसमें टीकाकार ने विदेहस्थ मनुष्यों की ऊंचाई सवा पांच सौ धनुष प्रमाण बतायी है ।
इस अध्याय के अन्त में लौकिक प्रमाण और अलौकिक प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है।
चौथे अध्याय में देवों का वर्णन है, चार निकाय, इन्द्रादि दस भेद, प्रवीचार, भवनवासी आदि के प्रभेद बतलाये हैं। ज्योतिष्क के कथन में कील के समान ध्र व ज्योतिष्क और उन ध्र व ज्योतिष्क का उल्लेख टीकाकार ने किया है जो अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। वैमानिक देवों की लेश्या आयु तथा अन्य निकायों की आयु का कथन है।
अन्त में तीन लोक का प्रमाण बतलाने वाले आगम का सयुक्तिक समर्थन किया है।