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खण्डन कर दिया है और जैन सूत्र प्रतिपादित मोक्षमार्ग और मोक्षस्वरूप को सयुक्तिक निर्दोष सिद्ध किया है ।
सम्यग्दर्शन का लक्षण और जीवादि सात सत्त्वों का कथन करके इनके जानने के उपाय निक्षेप, प्रमाण, नय निर्देशादि छह तथा सत् संख्यादि आठ अनुयोग द्वारों का प्रतिपादन हुआ है । निर्देशादि को तथा सत् संख्यादि को प्रमाण नयात्मक स्वीकार करना टीकाकार की अपनी एक विशेषता है ।
सर्वत्र सूत्रोक्त पदों का समास प्राय: किया गया है जैसे कि सर्वार्थ सिद्धिकार ने किया है । मतिज्ञानादि पांच ज्ञान ही प्रमाण हैं, सन्निकर्षादि प्रमाण नहीं हैं ऐसा सिद्ध किया है । मतिज्ञान के अवग्रह आदि भेद, श्रुतज्ञान के अंग पूर्वादि भेद, अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान के भेद बतलाकर इन ज्ञानों का विषय बताया है । यह विद्वद्वर्ग प्रसिद्ध है कि अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के विषय में आगम में दो धारा उपलब्ध होती हैं एक तो यह तत्त्वार्थ सूत्रकार की धारा कि अवधिज्ञान से ( सर्वावधि - ज्ञान से) मन:पर्ययज्ञान का विषय अनंतवें भाग सूक्ष्म है 'तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य' और दूसरी धारा है सर्वावधि का विषय परमाणु है और मन:पर्यय ज्ञान का विषय स्कंधरूप है । इसमें श्री भास्करनन्दि ने अवधिज्ञान का विषय महास्कंध कहा जो कि कर्मद्रव्य के अनन्त भाग का अन्त्यभाग है । यहां उस स्कन्ध को महास्कन्ध कहने क अभिप्राय इतना ही प्रतीत होता है कि वह भाग परमाणु और द्वयणुक आदि स्कंधरूप नहीं है किन्तु अनंत अणुओं का स्कंधरूप है । एक साथ एक जीव के एक ज्ञान तो केवलज्ञान होता है क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानों के साथ केवलज्ञान सम्भव नहीं है क्योंकि आवरणों के अस्तित्व में होने वाले मति आदि ज्ञान और आवरणों के क्षय से होने वाला केवलज्ञान इनका सहभावीपना विरुद्ध है । अतः आत्मा के एक ज्ञान होवे तो वह केवलज्ञान है । यहां टीकाकार ने अल्पश्रुतज्ञान से युक्त यदि मतिज्ञान है तो उसको भी एक मानकर एक आत्मा में एक मतिज्ञान होना बताया है, वार्तिककार ने बताया है । नैगम संग्रह आदि नयों का विवेचन मध्यम गया है । नैगम के प्रभेद श्लोकवार्तिक का अनुकरण करते हैं ।
ऐसे ही श्लोक -
रीत्या किया
नगमादि सात नय एवं उनके भेदों का कथन करके अन्वयनय, व्यतिरेक नय आदि अन्य प्रकार से नयों का वर्णन भी किया है तथा एक उद्धृत श्लोक प्रस्तुत किया गया है ।