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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १४९ त्सेधाः पचधनुःशतविष्कम्भशिलासमायामैकपद्मवरवेदिकापरिवृताः श्वेतवरकनकस्तूपिकालंकृतचतुस्तोरणद्वारविराजिताः । तासामुपरि बहुमध्यदेशभावीनि पंचधनुःशतोत्सेधायामतदर्धविष्कम्भाणि प्राङ मुखानि सिंहासनानि । पौरस्त्यसिंहासने पूर्व विदेहजान् अपाच्ये भरतजान्, प्रतीच्ये अपरविदेहजान् उदीच्ये ऐरावतजान् तीर्थकरान् चतुर्णिकायदेवाधिपाः सपरिवारा महत्या विभूत्या क्षीरोदवारिपूर्णाष्टसहस्रकनककलशैरभिषिचंन्ति । चूलिकायाश्चतसृषु महादिक्षु चत्वार्यहदायतनानि भवन्ति । भद्रशालवनभाविनि भूतले लोहिताक्षकल्पः परिक्षेपः । तत ऊर्ध्वमर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य द्वितीयः पद्मवर्णः। ततोप्यर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य तृतीयस्तपनीयवर्णः । ततोप्यर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य चतुर्थो वैडूर्यवर्णः । ततोप्यर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य पंचमो वज्रप्रभ । ततोप्यर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य षष्ठो हरितालवर्णः ततोप्यर्धसप्तदशयोजनसहस्राण्यारुह्य जाम्बूनदसुवर्णवर्णो वेदिकायें आधा योजन ऊंची पांच सौ धनुष चौड़ी, शिलाओं के बराबर लंबी हैं । इनके प्रत्येक के चार चार तोरण द्वार श्वेत सुवर्ण मय स्तूपिकाओं से अलंकृत हैं । उन पाण्डुकादि शिलाओं पर बहुमध्य भागों में सिंहासन हैं, वे सर्व ही सिंहासन पांच सौ धनुष ऊंचे और लम्बे हैं तथा उससे आधे अर्थात् ढाई सौ धनुष चौड़े हैं तथा पूर्वाभिमुख हैं । पूर्व दिशा की शिला के सिंहासन पर पूर्व विदेह में होनेवाले तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है, दक्षिण शिला के सिंहासन पर भरत क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का, पश्चिम शिला के सिंहासन में पश्चिम विदेहस्थ तीर्थङ्करों का और उत्तर दिशा की शिला के सिंहासन पर ऐरावत क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इस जन्माभिषेक को चार प्रकार के देवों के इन्द्र सपरिवार महान विभूति द्वारा क्षीर सागर के जल से परिपूर्ण सुवर्ण मय एक हजार आठ कलशों द्वारा करते हैं । मेरु की चूलिका के प्रारम्भ भाग में [ पाण्डुक वन में ] चार महादिशाओं में चार जिनालय हैं । मेरु के सात परिक्षेप हैं, पहला परिक्षेप लोहिताक्ष मणिमय है यह भद्रशाल वन के भूतल पर है, उससे ऊपर साडे सोलह हजार योजन जाकर दूसरा परिक्षेप है यह पद्मवर्ण है । उससे साडे सोलह हजार योजन ऊपर चढ़कर तीसरा तपे सोने के वर्ण का परिक्षेप है। उससे साडे सोलह हजार योजन ऊपर जाकर चौथा परिक्षेप वैडूर्य वर्ण-वाला आता है। उससे साडे सोलह हजार योजन ऊपर जाकर पांचवां वज्रप्रभ परिक्षेप है। उससे साडे सोलह हजार योजन ऊपर जाकर छठा हरिताल वर्ण का परिक्षेप है । उससे साडे सोलह हजार योजन ऊपर जाकर सातवां जांबूनद सुवर्ण सदृश वर्ण का परिक्षेप आता है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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