________________
१४८ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विष्कम्भस्त्रीणि सहस्राणि द्वे शते द्वासप्ततिर्योजनानामष्टौ चैकादशभागाः। तत्परिधिर्दशसहस्राणि त्रीणि शतान्येकान्नपंचाशानि योजनानां त्रयश्चैकादशभागाः किंचिद्विशेषोनाः । मेरोश्चतुर्दिक्षु सौमनसे चत्वार्यर्हदायतनानि सन्ति । सौमनसात्समादभूभागात्षट्त्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य योजनानि वृत्तवलयपरिधि पाण्डुकवनं चतुर्नवत्युत्तरचतुःशतविष्कम्भं पद्मवरवेदिकापरिवृतं चूलिकां परीत्य स्थितम् । शिखरे मेरोरेकं योजनसहस्र विष्कम्भः । तत्परिधिस्त्रीणि सहस्राणि द्विषयधिकं शतं योजनानां साधिकम् । पाण्डुकवनबहुमध्यदेशभाविनी चत्वारिंशद्योजनोच्छाया मूलमध्याग्रेषु द्वादशाष्ट चतुर्योजन विष्कम्भा सुवृत्तचूलिका । तस्याः प्राच्यां दिशि पाण्डुकशिला उदग्दक्षिणायामा प्राक्प्रत्यग्विस्तारा । अपाच्यां पाण्डुकम्बलशिला प्राक्प्रत्यगायामा उदग्दक्षिणविस्तारा । प्रतीच्यां रत्नकम्बलशिला उदगपागायता प्राक्प्रत्यग्विस्तीर्णा । उदीच्यामतिरक्तकम्बलशिला प्राक्प्रत्यगायता उदगपाग्विस्तीर्णा । ता एताश्चतस्रोऽपि योजनशताया मास्तदर्धविष्कम्भा अष्ट योजनबाहुल्या अर्धचन्द्रसंस्थाना अर्धयोजनो
जगह मेरु के अभ्यन्तर भाग का विष्कम्भ तीन हजार दो सौ बहत्तर योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से आठ भाग है और परिधि दश हजार तीन सौ उनचास योजन तथा एक योजन के ग्यारह भागों में से कुछ कम तीन भाग प्रमाण है। यहां मेरु के सौमनस वन की चार दिशाओं में चार जिन भवन हैं । सौमनस वन के समभाग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाकर पाण्डुक नाम का वन आता है, इसका विष्कम्भ चार सौ चौरानवे योजन का है । पद्मवर वेदिका से वेष्टित है वृत्ताकार परिधि वाला है तथा चलिका की प्रदक्षिणा रूप से अवस्थित है । मेरु के शिखर भाग पर एक हजार योजन का विष्कंभ है । उसकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन और कुछ अधिक है। पाण्डुक वन के ठीक मध्य भाग में चालीस योजन की ऊंची चलिका है यह गोल है मूल में बारह योजन मध्य में आठ योजन और अग्र में चार योजन चौड़ी है। चूलिका के प्रारम्भ भाग के सन्निकट शिलायें हैं पूर्व दिशा में पाण्डुक शिला है, वह उत्तर दक्षिण लंबी और पूर्व पश्चिम में चौड़ी है, दक्षिण दिशा में पाण्डुकम्बला शिला है, यह पूर्व पश्चिम में तो लंबी है और उत्तर दक्षिण में चौड़ी है। पश्चिम दिशा में रत्नकम्बला नाम की शिला है, यह शिला उत्तर दक्षिण में आयत और पूर्व पश्चिम में विस्तृत है। उत्तर दिशा में अतिरक्त कम्बला नाम की शिला है, यह पूर्व पश्चिम में लंबी और उत्तर दक्षिण में विस्तीर्ण है । ये चारों ही शिलायें सौ योजन लंबी [ राजवात्तिक के अनुसार पांच सौ योजन लंबी ] पचास योजन चौड़ी आठ योजन मोटी हैं, अर्ध चन्द्राकार हैं । चारों ही शिलायें पद्मवर वेदिका से परिवृत हैं, ये