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________________ तृतीयोऽध्यायः [ १४७ पद्मवेदिकया परिवृतम् । मेरोश्चतसृषु दिक्षु भद्रशालवने चत्वार्यर्हदायतनानि सन्ति । ततो भूमितलात्पञ्च योजनशतान्युत्पत्य पञ्चयोजनशत विष्कम्भं मेरुसमायाममण्डलं पद्मवरवेदिकापरिक्षिप्तं वृत्तवलयपरिधि नन्दनवनम् । तत्र बाह्यगिरिविष्कम्भो नवसहस्राणि नव च शतानि चतुःपञ्चाशानि योजनानां षट्चैकादशभागाः । तत्परिधिरेकत्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतान्येकान्नाशीत्यधिकानि सातिरेकारिण योजनानाम् । अभ्यन्तरगिरिविष्कम्भोऽष्टौ सहस्राणि नवशतानि चतुःपञ्चाशानि योजनानां षट्चैकादशभागाः । तत्परिधिरष्टाविंशति सहस्राणि त्रीणि शतानि षोडशानि योजनानामष्टौ चैकादशभागाः । चतसृषु दिक्षु चतस्रो गुहाः । तासु यथासङ्ख्यं सोम, यम, वरुण, कुबेराणां विहाराः । मेरोश्चतसृषु दिक्षु नन्दनवने चत्वारि जिनायतनानि सन्ति । नन्दनात्समाद्भूभागाद्विषष्टियोजनसहत्राणि पञ्चशतान्युत्पत्य वृत्तवलयपरिधि पञ्चयोजनशतविष्कम्भं पद्मवरवेदिकापरिक्षिप्त सौमनसवनम् । तत्र बाह्यगिरिविष्कम्भश्चत्वारि सहस्राणि द्वे शते द्वासप्ततिश्च योजनानामष्टौ चैकादशभागा । तत्परिधिस्त्रयोदशसहस्राणि पंचशतान्येकादशानि योजनानां षट्चैकादशभागाः । अभ्यन्तरे गिरि पांच सौ धनुष और लंबाई वन के बराबर है । तथा यह वेदिका बहुत से तोरणों से सुशोभित है । मेरु की चार दिशाओं में भद्रशाल वन में चार जिनालय हैं । इस भद्रशाल वन वाले मेरु के भाग से ऊपर पांच सौ योजन चले जाने पर नन्दन बन आता है, इस वन का विष्कम्भ पांच सौ योजन का है, मेरु के समान आयम मण्डल है । यह पद्मवर वेदिका से वेष्टित और वृत्ताकार परिधि वाला है । उस नन्दन वन में मेरु के बाह्य भाग का विष्कम्भ नौ हजार नौ सौ चौवन योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण का है । इसकी परिधि इकतीस हजार चार सौ योजन और कुछ अधिक उन्यासी योजन प्रमाण है । यहीं पर मेरु के अभ्यन्तर भाग का विष्कम्भ आठ हजार नौ सौ चौवन योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग है । और उसकी परिधि अट्ठाईस हजार तीन सौ सोलह योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से आठ भाग है । इस वन के चारों दिशाओं में चार गुफायें हैं, उनमें पूर्वादि दिशा क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर देव के विहार स्थल [ प्रासाद ] हैं | मेरु के नंदन वन में चार दिशाओं में चार अर्हदायतन हैं । नन्दन वन के समभूमि भाग से बासठ हजार पांच सौ योजन ऊपर जाकर सौमनस नाम का वन आता है, वह वृत्ताकार परिधि युक्त पांच सौ योजन चौड़ा, पद्मवर वेदिका से वेष्टित है इस जगह मेरु के बाह्य भाग का विस्तार चार हजार दो सौ बहत्तर योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से आठ भाग प्रमाण है । उसकी परिधि तेरह हजार पांच सौ ग्यारह योजन पूर्ण तथा एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण की है । उसी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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