________________
१५० ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती भवति । अधोभूम्यवगाही योजनसहस्रायामः प्रदेशः पृथिव्युपलवालुकाशर्कराचतुर्विधपरिणामः उपरि वैडूर्यपरिणामः प्रथमकाण्ड । सर्वरत्नमयः द्वितीयकाण्डः । जाम्बूनदमयस्तृतीयकाण्डः। चूलिका वैडूर्यमयी। मेरुरयं त्रयाणां लोकानां मानदण्डः । अस्याधस्तादधोलोकः । चूलिकामूलादूर्ध्वलोकः । मध्यप्रमाणस्तिर्यविस्तीर्णस्तिर्यग्लोकः । एवं च कृत्वाऽन्वर्थनिर्वचनं क्रियते-लोकत्रयं मिनोतीति मेरुरिति । तस्य भूमितला दारभ्याऽऽशिखरादैकादशिकी प्रदेशहानिः । एकादशसु प्रदेशेष्वेकः प्रदेशो हीयते । एकादशसु गव्यूतेष्वेकं गव्यूतं हीयते । एकादशसु योजनेष्वेक योजनं हीयते । एव सर्वत्राशिखरात् भूमितलस्याध ऐकादशिकी प्रदेशवृद्धिः । एकादशसु प्रदेशेष्वेकः प्रदेशो वर्धते । एकादशसु गव्यूतेष्वेकं गव्यूतं वर्धते । एकादशसु योजनेष्वेकं योजनं वर्धते । एवं सर्वत्र पा अधस्तलात् ।
मेरु के तीन काण्ड बतलाते हैं मेरु के अधोभाग में [ नीचे जमीन में ] जड में एक हजार योजन आयाम वाला जो प्रदेश है वह पृथिवी, पाषाण, वालु और रेत [ कंकर ] इसप्रकार चार भेद रूप है उसका उपरिम भाग वैडूर्य वर्ण है यह प्रथम काण्ड कहलाता है । द्वितीय काण्ड सर्व रत्नमय है । तृतीय काण्ड सुवर्ण मय है। मेरु को लिका वैडूर्यमणि मय है । यह मेरु तीन लोकों का माप दण्ड है । इसके नीचे अधोलोक है। इसकी चूलिका के मूल से ऊर्ध्वलोक है और मध्य प्रमाण वाला तिरछे रूप से फैला हुआ तिर्यग्लोक है । इसतरह होने से ही इसकी अन्वर्थ नाम निरुक्ति ' होती है कि "लोक त्रयं मिनोति इति मेरुः" अब इस मेरु के ऊपर ऊपर भाग में किस प्रकार प्रदेश हानि [ सकड़ाई ] होती है सो बताते हैं-उस मेरु के भूमितल से लेकर शिखर तक ग्यारह प्रदेश जाने पर एक प्रदेश कम होता है अर्थात् ग्यारह प्रदेशों में एक प्रदेश हीन हुआ, इस क्रम से ग्यारह कोस ऊंचे जाने पर मेरु की चौड़ाई एक कोस कम होगी, ग्यारह योजन ऊपर जाने पर एक योजन चौड़ाई घट जायगी। यह तो नीचे से ऊपर घटने का क्रम बताया। इस प्रकार शिखर भाग से नीचे जावो तो बढता क्रम है वह भी शिखर से लेकर भूमितल तक ग्यारह प्रदेशों में एक प्रदेश बढ़ता है ग्यारह कोस नीचे आने पर एक कोस की चौड़ाई बढ़ती है, ग्यारह योजन नीचे आने पर एक योजन चौड़ाई बढ़ती है । इसप्रकार भूमितल तक लगाना । इसतरह विदेह का वर्णन समाप्त हुआ।
[ मेरु का नक्शा अगले पृष्ठ पर देखिये ]