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________________ १३६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती इत्यर्थः । विष्कम्भो विस्तारः । द्विद्विविष्कम्भो येषां ते द्विढिविष्कम्भा मीयन्ते । जम्बूद्वीपे द्विढिविष्कम्भत्वव्याप्तिर्न भवति । किं तहि तत्परिक्षेपी लवणोदस्तद्विगुणविस्तारस्तत्परिक्षेपी च धातकीखण्डस्तद्विगुणविष्कम्भ इत्येवमाद्यास्वयम्भूरमणाद्वीप्साभ्यावृत्तिवचनाद्विष्कम्भद्विगुणत्वव्याप्तिः सिद्धा भवति । पूर्वशब्दस्य वीप्सायां द्वित्वम् । पूर्वपूर्व परिक्षिपन्ति परिवेष्टन्त इत्येवशीला: पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः । न ते ग्रामनगरादिवदवस्थिता इत्यर्थः । वलयस्येवाकृतिः संस्थानं येषां ते वलयाकृतयो न त्रयश्रचतुरश्रादिसंस्थाना द्वीपसमुद्रा इत्यर्थः । तहि जम्बूद्वीपस्य को विष्कम्भो यदिद्वगुणत्वेन शेषसमुद्रद्वीपा व्याप्यन्ते । क्व कीदृशश्चासावास्त इत्याह तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ।।६।। तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्यं तन्मध्यं तस्मिस्तन्मध्ये । मेरुर्मन्दरः । स च भूप्रदेशे दशयोजनसहस्रविस्तारः । समभूतलादध एकयोजनसहस्रावगाहः । ऊवं नवनवतियोजनसहस्रोत्सेधः । मेरुपरिमाणस्तिर्यग्लोकः तदूर्ध्वं शिखररूपा चूलिका वैडूर्यमयी चत्वारिंशद्योजनोच्छाया। सा चोर्ध्वलोकसम्बधिनी । नाभिरिव नाभिर्मेरु भिर्यस्य स मेरुनाभिः । वृत्तो वर्तुलो रविबिम्बोपमः । शतानां सहस्र की अभ्यावृत्ति होने से दुगुणा दुगुणा विस्तार अन्ततक सिद्ध होता है। पूर्व पूर्व ऐसा वीप्सार्थ में द्वित्व हुआ है । पूर्व पूर्व को परिक्षिप्त करने के स्वभाववाले वे द्वीप समुद्र हैं । ये ग्राम नगर आदि के समान स्थित नहीं हैं किन्तु वेष्टित करके स्थित हैं। ये सब वलय के समान संस्थान वाले हैं । तिकोणे चौकोणे आदि संस्थानवाले नहीं हैं। शंका-यदि ऐसी बात है तो जम्बूद्वीप का विस्तार ही बताइये कि जिसको दुगुणा करके शेष समुद्र द्वीप हैं तथा यह भी बताइये कि यह द्वीप कहां पर है किस प्रकार का है ? समाधान-अब इसी बात को सूत्र द्वारा कहते हैं सूत्रार्थ-उन द्वीप और समुद्रों के मध्य में मेरु है नाभि-मध्य में जिसके ऐसा एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बू द्वीप है। उन द्वीप समुद्रों के मध्य को तन्मध्य कहते हैं। मेरु का वर्णन करते हैं-वह भूमि प्रदेश में दस हजार योजन विस्तार वाला है । समतल से नीचे एक हजार योजन अवगाह [नीचे की जड़] वाला है, ऊपर में निन्यानवे हजार योजन ऊंचा है। इस सुमेरु पर्वत की ऊंचाई प्रमाण तिर्यग्लोक है । उक्त सुमेरु के उपरिम भाग में शिखररूप चूलिका है जो वैडूर्यमणि मय चालीस योजन
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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