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________________ [ १३५ तृतीयोध्यायः येषां ते जम्बूद्वीपलवणोदादयः । अादिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । तेन जम्बूद्वीपो धातकीखण्ड: पुष्करमित्येवमादयो द्वीपाः । लवणोदः कालोद इत्येवमादयः समुद्राः । शुभानि प्रशस्तानि नामानि येषां ते शुभनामानः । द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः। ते चासङ्घय या: स्वयम्भूरमणपर्यन्ता अनाद्यनन्ता वेदि तव्याः । अमीषां विष्कम्भसन्निवेशसंस्थानविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह द्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥ ८ ॥ द्वौ वारौ मीयन्त इति द्विः । सङ्ख्यायाभ्यावृत्तौ कृत्वसुचिति वर्तमाने द्वित्रिचतुर्थ्यः सुचित्यनेन द्विशब्दात्सुच्प्रत्ययः । तदन्तस्य वीप्साभिद्योतनाथ द्विरुक्तिः । द्विद्विरिति कोर्थो ? द्विगुणो द्विगुण ऐसा जम्बू नाम का वृक्ष है । उस वृक्ष से उपलक्षित द्वीप जम्बूद्वीप कहलाता है। लवणसदृश है पानी जिसका वह लवण समुद्र है, वे हैं आदि में जिनके वे जम्बूद्वीप लवणोदादि कहलाते हैं । आदि शब्द प्रत्येक के साथ संबद्ध है, उससे जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड पुष्कर इत्यादि द्वीप लिये जाते हैं तथा लवणोद, कालोद इत्यादि समुद्र लिये जाते हैं। शुभ-प्रशस्त हैं नाम जिनके वे शुभनामवाले कहलाते हैं, वे द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त वे सर्व ही अनादि निधन जानने चाहिये । अब इन द्वीप समुद्रों का विष्कंभ, रचना और संस्थान विशेषों को ज्ञात करने के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-वे द्वीप और समुद्र दुगुणे दुगुणे विस्तार वाले हैं पूर्व पूर्व को वेष्टित करते हैं और वलय-चूड़ी के आकार वाले हैं । द्वौ वारौ मीयन्त इति द्विः इसप्रकार द्विः शब्द बना है । “संख्यायाभ्यावृत्ती कृत्वसुच्" इस सूत्र के वर्तमान होने पर "द्वि त्रि चतुर्थ्यः सुच्" इस सूत्र द्वारा द्वि शब्द से सुच् प्रत्यय आया, उसके अन्त में वीप्सा अर्थ को प्रगट करने के लिये पुनः "द्विः" शब्द का प्रयोग हुआ है । "द्विद्धि" पद का अर्थ यह हुआ कि दुगुणे दुगुणे हैं। विष्कम्भ विस्तार को कहते हैं । दुगुणे दुगुणे हैं विस्तार जिनके वे "द्विद्विविष्कम्भाः" हैं । जम्बूद्वीप में दुगुणे विस्तार की व्याप्ति नहीं है किन्तु उस जम्बद्वीप को वेष्टित करनेवाला लवण समुद्र दुगुणा विस्तार वाला है, पुनः उसको वेष्टित करनेवाला धात की खण्ड दुगुणा विस्तार वाला है इसप्रकार अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र तक वीप्सा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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