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तृतीयोऽध्यायः
[ १३७ शतसहस्र लक्षमित्यर्थः । योजनानां शतसहस्र योजनशतसहस्र विष्कम्भो यस्यासौ योजनशतसहस्रविष्कम्भः । जम्बूवृक्षोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीप उक्तः सकलविशेषणविशिष्टः सर्वसमुद्रद्वीपमध्यवर्ती समस्तीति कथ्यते । तत्र जम्बूद्वीपे यानि षड्भिः कुलपर्वतैविभक्तानि क्षेत्राणि तत्प्रतिपादनार्थमाह
भरतहैमवतहरिविवेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥
भरतादयः संज्ञा अनादिकालप्रवृत्ताः। भरतश्च हैमवतश्च हरिश्च विदेहश्च रम्यकश्च हैरण्यवतश्चैरावतश्च । त एव वर्षा देशाः । सप्तैव क्षेत्राणि जम्बूद्वीपे भवन्ति । तत्र क्षुद्रहिमवतोऽद्रे: पूर्वदक्षिणपश्चिमदिग्भेदभिन्नसमुद्रत्रयस्य च मध्ये भरतवर्ष प्रारोपितचापाकारो गङ्गासिन्धुभ्यां विजयार्धेन च विभक्तत्वात्षड्खण्डः । तन्मध्यवर्ती विजया? रजताद्रिः पञ्चाशद्योजनविस्तारस्तद?सधश्चतुर्थभागावगाहो विजयस्यार्धकरणादन्वर्थो भवति । पूर्वपश्चिमसमुद्रयोहिमवन्महाहिमवतोश्चा
ऊंची है । यह ऊर्ध्वलोक संबंधी है । नाभि के समान मध्य में है मेरु जिसके ऐसा वह द्वीप है । वह गोल सूर्यबिम्ब सदृश है । "शतसहस्रविष्कंभः" पद में पहले तत्पुरुष और पुनः बहुब्रीहि समास है । एक लाख योजन विस्तारवाला, जम्बू वृक्ष से उपलक्षित जम्बूद्वीप उक्त संपूर्ण विशेषणों से विशिष्ट है तथा सर्व ही द्वीप सागरों के मध्य में स्थित है यह तात्पर्य है ।
उस जम्बू द्वीप में छह कुलाचलों द्वारा जो क्षेत्र विभक्त हुए हैं उनका प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं।
भरत आदि संज्ञायें अनादि काल से प्रवृत्त हैं। इन भरत आदि पदों में द्वन्द्व समास है। ये सात क्षेत्र जम्बूद्वीप में हैं। अब इन क्षेत्रों का विशेष कथन करते हैंक्षुद्र हिमवान पर्वत और पूर्व दक्षिण पश्चिम की दिशा भेद से भिन्न ऐसे समुद्रत्रय के मध्य में भरत क्षेत्र है। इसका आकार बाण चढ़ाये धनुष के समान है। गंगा सिन्धु नदी तथा विजयार्ध पर्वत से विभक्त होने के कारण छह खण्ड वाला है उस भरत क्षेत्र के मध्य में विजयाध नामा जो पर्वत है वह पचास योजन विस्तार वाला, पच्चीस योजन ऊंचा और भूमि में चतुर्थ भाग अवगाह वाला है यह चक्रवर्ती के आधे विजय का सूचक होने से सार्थक विजया कहलाता है। पूर्व पश्चिम समुद्र और हिमवान् महा