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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ वासिक्षुर तीक्ष्णपादप्रहारादिभिः परस्परस्यान्योन्यस्योदीरितं जनितं दुःखं यैस्ते परस्परोदोरितदुःखा नारका भवन्तीति सम्बन्धः । यथासम्भवं कारणांतरजनितदु.खत्वं च तेषां प्रतिपादयन्नाह
संक्लिष्टापुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थाः ॥५॥ संक्लेशपरिणामेन पूर्वोपाजितपापकर्मोदयादत्यन्तं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः । भवनवासिविकल्पाऽसुरत्वनिर्वर्तनस्य कर्मण उदयादस्यन्ति क्षिपन्ति परानित्यसुराः । संक्लिष्टाश्च ते असुराश्च संक्लिष्टासुरास्तैरुदीरितं दुःखं येषां ते संक्लिष्टासुरोदीरितदु:खा नारका उपरि तिसृष्वेव पृथिवीषु प्राक्चतुर्थ्या
सूत्रार्थ-वे नारकी परस्पर में एक दूसरे को अत्यंत दुःख को उत्पन्न करते रहते हैं। वसूला, खुरपा, तीक्ष्ण पाद प्रहार आदि के द्वारा वे नारकी एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं, वसूला आदि के द्वारा एक दूसरे को उत्पन्न किया जाता है दुःख जिनके द्वारा वे "परस्परोदीरित दुःखाः" कहलाते हैं। इसप्रकार सूत्रोक्त पद का समास है।
उन नारकियों के अन्य कारणों से भी दुःख उत्पन्न होता है ऐसा आगे बताते हैं
सूत्रार्थ-संक्लिष्ट परिणाम वाले असुरकुमार देवों द्वारा चौथे नरक के पहले तीसरे नरक तक उत्पन्न किये गये दु:खों से युक्त वे नारकी होते हैं । पूर्व जन्म में संक्लेश परिणाम द्वारा बांधे गये पाप कर्म के उदय से जो अत्यन्त क्लिष्ट हैं उन्हें संक्लिष्ट कहते हैं, भवनवासि भेद स्वरूप असुरत्व को उत्पन्न करनेवाले कर्म के उदय से जो परको पीड़ित करते हैं वे असुर हैं । संक्लिष्ट असुरों द्वारा किया गया है दुःख जिनके वे “संक्लिष्टासुरोदीरित दुःखाः" कहलाते हैं । ऊपर की तीन भूमियों में ही यह स्थिति है अतः प्राक् चतुर्थ्याः ऐसा मर्यादा अर्थ जानना चाहिये । च शब्द पूर्वोक्त दुःखों का समुच्चय करने के लिये है । अन्यथा ऊपर की तीन भूमियों में यह सूत्र पूर्व सूत्र को बाधा करेगा। अभिप्राय यह है कि यदि इस सूत्र में च शब्द नहीं होता तो पूर्व सूत्र में कहा गया परस्पर उदीरित दुःख का तीसरे नरक तक अभाव हो जाता,