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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ नरकेषु भवा नारकाः संसारिणो जीवाः । नित्यमभीक्ष्णं पुनः पुनरित्यर्थः । अतिशयेनाशुभा अशुभतराः । नित्यमशुभतरा नित्याशुभतराः । लेश्या च परिणामश्च देहश्च वेदना च विक्रिया च लेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । नित्याशुभतरा लेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया येषां ते नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । तत्र लेश्या द्रव्यभावविकल्पावधा। तत्र देहच्छविर्द्र व्यलेश्या । असौ सर्वनारकाणामेकैव कृष्णा । कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्भावलेश्या । तत्र तद्विशेषसंग्रहश्लोकः
द्विः कापोताथ कापोता नीले नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णातिकृष्णा रत्नप्रभादिषु ।।
सूत्रार्थ-नारकी जीव हमेशा ही अशुभतर लेश्या वाले अशुभतर परिणाम वाले, अशुभतर शरीरधारी, अशुभतर-अत्यन्त वेदनायुक्त और अशुभतर विक्रिया करने वाले होते हैं।
- नरक बिलों में होने वाले संसारी जीव नारकी कहलाते हैं, नित्य अर्थात् अभीक्ष्ण, पुनः पुनः । अतिशय अशुभ को अशुभतर कहते हैं । नित्य-सतत अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह वेदना और विक्रिया वाले नारकी होते हैं । नित्य अशुभतर पद का कर्मधारय समास करना, पुनः लेश्या आदि पदों का द्वन्द्व गर्भित बहुब्रीहि समास करना चाहिये । लेश्या के दो भेद हैं द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । देह की छवि को द्रव्यलेश्या कहते हैं । यह द्रव्यलेश्या सब नारकी जीवों की कृष्ण ही होती है [ सभी नारकी काले ही होते हैं ] कषाय के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। उन नारकियों में लेश्या विशेष को बतलाने वाला यह संग्रह श्लोक है
द्विः कापोताथ कापोता नीले नीला च मध्यमा ।
नीला कृष्णे च कृष्णाति कृष्णा रत्नप्रभादिषु ॥ १॥ अर्थ–रत्नप्रभादि भूमियों में क्रमशः प्रथम द्वितीय नरक में कापोत लेश्या तीसरी में कापोत और नील, चौथी में मध्यम नील, पांचवीं में नील तथा कृष्ण, छठी में कृष्ण और सातवीं नरक भूमि में अतिकृष्ण लेश्या है । अर्थात् रत्नप्रभा में जघन्य कापोत लेश्या है । शर्कराप्रभा में मध्यम कापोत लेश्या है । वालुकाप्रभा में दो लेश्या हैं, उत्कृष्ट कापोत लेश्या तो ऊपरि भाग में है और अधोभाग में जघन्य नील लेश्या है ।