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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती कोटीप्रमाणानि । ता एताः सप्तापि भूमयस्त्रसनालमध्यवर्तिन्योऽधोऽधो हीनपरिणाहा वेदितव्याः । तत एव नाधोऽधो विस्तीर्णास्तास्तथैवागमे प्रतिपादितत्वात् । एवं ह्य क्तमागमे स्वयम्भूरमणसमुद्रान्तादवलम्बिता रज्जुः सप्तम्या भूमेरधःस्थाने पूर्वादिदिग्भागावगाहिकालमहाकालरौरवमहारौरवान्ते पततीति तासां भूमीनां नामान्तराण्यपि सन्ति । तद्यथा- ..
घौवंशाशिलासूच्चैरञ्जनारिष्टयोरपि ।
कुदृष्टिदु:खमाप्नोति मघवीमाधवीभुवोः ।। इति ।। ; साम्प्रतं तासु भूमिषु नरकविशेषप्रतिपादनार्थमाह
कि मध्यलोक में अन्तिम जो स्वयंभूरमण समुद्र है उस समुद्र के परले तट भाग से एक मोटा रस्सा [ कल्पना द्वारा ] नीचे सातवें नरक भूमि तक लटका दो, तो वह रस्सा सातवीं भूमि के अधोभाग में पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से काल, महाकाल, रौरव, महारौरव नाम वाले जो चार बिल हैं उनके अन्तभाग में जाकर पड़ता है । इस आगम वाक्य से सिद्ध होता है कि ये भूमियां स नाली में हैं।
विशेषार्थ- यहां पर रत्नप्रभा आदि सातों भूमियों को त्रस नाली में कहा है और उसके लिये हेतु दिया है कि मध्यलोक जो कि त्रस नाली में है एक राजू विस्तीर्ण है उसके अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है उसके परले तट से रस्सा बुद्धि द्वारा या कल्पना द्वारा नीचे सातवें नरक तक लटकाया जाय तो वह उक्त नरक के पूर्वादि दिशा में काल आदि नाम वाले बिल हैं उनके अन्त भाग में जाकर गिरता है किन्तु त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में इन सातों नरक भूमियों का विस्तार लोक के अन्त तक कहा है जो कि अस नाली के बाहर है । नरक भूमियां लोक के अन्त तक हैं किन्तु नरक बिल तो त्रस नाली में हैं अर्थात् लोक के अन्त तक फैली हुई इन भूमियों में जो भाग त्रस नाली में है उतने भाग में ही नरक बिल हैं बाहर नहीं अतः मध्यलोक का अन्त और सातवें नरक के दिशा संबंधी बिल एक सोधमें हैं इस बात को बतलाने के लिये रस्सा लटकाने की कल्पना की है। सातों भूमियों के विषय में विशेष जानने के लिये त्रिलोकसार का लोक सामान्य अधिकार [ प्रथम ] की १४४ से आगे की गाथाओं का अर्थ अवलोकनीय है । इन नरक भूमियों के दूसरे नाम भी हैं। इसीको बताते हैं-घर्मा, वंशा, शिला, अञ्जना, अरिष्टा, मघवी, और माधवी ये सात नरक भूमियां हैं इनमें मिथ्यादृष्टि जीव अत्यंत दुःख को भोगते हैं ॥ १ ॥
अब आगे उन भूमियों में नरक विशेषों का प्रतिपादन करते हैं