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________________ १२६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो तु व्योम सुप्रसिद्धमेव । घनश्च अम्बु च वातश्चाकाशं च घनाम्बुवाताकाशानि । प्रतिष्ठन्ते अस्यामिति प्रतिष्ठा आश्रय इत्यर्थः । घनाम्बुवाताकाशानि प्रतिष्ठा यासां भूमिनां ता घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः । ता एता भूमयो घनवातप्रतिष्ठाः । घनवातोम्बुवातप्रतिष्ठः । अम्बुवातस्तनुवातप्रतिष्ठः । तनुवातश्चाकाशप्रतिष्ठः । आकाशं तु स्वप्रतिष्ठमेव तस्यैवामूर्तत्वसर्वगतत्वाभ्यामाधाराधेयत्वोपपत्तेः । घनवातादयस्त्रयो वाता वृक्षत्वक्त्रयवत्सर्वतः समस्तं लोकं परिवेष्टय स्थिता: याथासङ्घय न गोमूत्रमुद्गनानावर्णाश्च । ते सप्तभूमेरधःपार्श्वेषु चैकां रज्जु यावद्दण्डाकारा: प्रत्येकं विंशतियोजनसहसूबाहुल्यास्तत ऊर्ध्वं भुजङ्गवत्कुटिलाकृतयः । कौटिल्यं मूले यथासङ्घय सप्तपञ्चचतुर्योजनबाहुल्यास्तत ऊर्ध्वं क्रमेण हानौ सत्यां मध्यलोकपर्यन्ते पञ्च चतुस्त्रियोजनबाहुल्यास्तत ऊर्ध्वं क्रमवृद्धौ सत्यां ब्रह्मलोकान्ते सप्त अर्थात् ये सात भूमियां घनवात प्रतिष्ठ हैं, घनवात, अम्बुवात प्रतिष्ठ हैं, अम्बुवात, तनवात प्रतिष्ठ हैं और तनुवात आकाश प्रतिष्ठ हैं । आकाश स्वप्रतिष्ठ ही है वह आकाश अमूर्त तथा सर्वगत होने के कारण स्वयं ही आधार और स्वयं आधेयभूत है, इसको अन्य आधार की अपेक्षा नहीं होती। ये तीनों वातवलय जैसे वृक्ष को उसकी छाल सब तरफ से वेष्टित करती है वैसे समस्त लोक को सब तरफ से वेष्टित करते हैं । इनमें घनवात का वर्ण गोमूत्र जैसा है, अम्बुवात का वर्ण मूग जैसा है, और तनवात अनेक वर्ण वाला है । वे तीनों वातवलय सातों ही भूमियों के नीचे तथा पार्श्व भागों में एक राजू पर्यन्त दण्डाकार से स्थित हैं। यहां पर इनकी प्रत्येक की मोटाई बीस हजार बीस हजार योजनों की है। एक राजू के बाद ऊपर जाकर ये वातवलय सर्प के समान कुटिल आकार वाले हो जाते हैं । अर्थात् ये वातवलय एक राजू की ऊंचाई तक तो सर्वत्र बीस हजार बीस हजार योजन मोटे हैं । इसके अनन्तर घटते जाते हैं। एक राज के बाद शुरु में इन वातवलयों में से प्रथम वात की सात योजन मोटाई है, दूसरे की पांच योजन और तीसरे वात की मोटाई चार योजन प्रमाण है । उसके बाद क्रम से घटते घटते मध्यलोक में इनकी मोटाई क्रमशः पांच योजन, चार योजन और तीन योजन रह जाती है । इसके ऊपर क्रम से इनकी मोटाई बढ़ती हुई ब्रह्मलोक के अन्त में सात योजन, पांच योजन और चार योजन की मोटाई हो जाती है । इसके अनंतर ऊपर क्रम से घटती हुई मोक्ष भूमि पर्यन्त तिर्यग्रूप से पांच योजन, चार योजन और तीन योजन मोटाई है । उससे ऊपर लोक के अग्र में
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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