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तृतीयोऽध्यायः
[ १२५ - रत्नादयः शब्दाः प्रसिद्धार्थाः । रत्नं च शर्करा च वालुका च पङ्कश्च धूमश्च तमश्च महातमश्च रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमांसि । प्रभाशब्दो दीप्तिवाची । तस्य रत्नादिभिः प्रत्येकमभिसम्बन्वे तद्भदाद्भदोपपत्तेर्बहुत्वमुपपद्यते । तेषां रत्नादीनां प्रभा रत्नादिप्रभाः । तत्साहचर्याभूमयोऽपि रत्नप्रभादिशब्दैः प्रोच्यन्ते । यथा यष्टिसहचरितो देवदत्तो यष्टिरित्युच्यते । ततश्च चित्रवज्रवैडूर्यलोहिताक्षमसारगल्वगोमेदप्रवालद्योती रसाञ्जनाञ्जनमूलकान्तस्फटिकचन्दनवर्धकवकुलशिलामयाख्यषोडशरत्नप्रभासहचरिता भूमी रत्नप्रभा । शर्कराप्रभासंयुक्ता भूमिः शर्कराप्रभेत्यादि । ता एता रत्नप्रभादिसंज्ञा इन्द्रगोपादिसंज्ञाशब्दवत् रूढा भूमयः पृथिव्यो न नरकपटलानि । नापि विमानानि । घनशब्देन घनवात आगमे रूढो गृह्यते । तथाम्बुशब्देनाम्बुवातः । वातशब्देन च तनुवातः । आकाशं
भूमियां नीचे नीचे स्थित हैं । रत्नादि शब्द प्रसिद्ध अर्थ वाले हैं । इनमें द्वन्द्व समास हुआ है । प्रभा शब्द दीप्ति वाचक है। उस प्रभा शब्द का रत्नादि प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करने पर उनके भेद से प्रभा शब्द के बहुपना बन जाता है, उन रत्नादि की प्रभा रत्नादिप्रभा इसप्रकार समास हुआ है। उन रत्नादि की प्रभा के साहचर्य से भूमियां भी रत्नप्रभा आदि शब्दों द्वारा कही जाती हैं। जैसे यष्टि-के साहचर्य से देवदत्त को यष्टि कह देते हैं । चित्रवज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्व, गोमेद, प्रवाल, द्योतीरस, अञ्जन, मूल अंक, स्फटिक, चन्दन, वर्धक, बकुल और शिला इन सोलह रत्नों की प्रभाओं से युक्त भूमि रत्नप्रभा नाम से कही जाती है। शर्करा-कंकर जैसे प्रभावाली भूमि शर्कराप्रभा भूमि है । वालु-रेत जैसी प्रभायुक्त भूमि वालुकाप्रभा है इत्यादि सबके विषय में लगा लेना चाहिये । अथवा ये रत्नप्रभा आदि नाम इन्द्रगोप आदि नाम के समान रौढिक समझना चाहिये । अर्थात् 'इन्द्र गोपयति इति इन्द्रगोपः' इन्द्र का गोपन करे वह इन्द्रगोप ऐसी रूढि व-निरुक्ति होने पर भी वैसा अर्थ न लेकर इन्द्रगोप नाम तो एक कीट विशेष [ वीर बहुरी-लाल-मखमल जैसा आकार वाला जोव ] का है, इसीतरह रत्नप्रभा आदि नाम रूढि स्वरूप जानने । भूमि अर्थात् पृथ्वी । ये नरक पटल नहीं हैं, विमान भी नहीं हैं किन्तु ये सात तो भूमियां हैं इस बात को बतलाने के लिये “भूमयो" ऐसा पद दिया है । घन शब्द से आगम में कथित घनवात लिया जाता है, अम्बु शब्द से अम्बुवात और वात शब्द से तनुवात का ग्रहण होता है । आकाश व्योम कहलाता है यह प्रसिद्ध ही है । घन, अम्बु, वात और आकाश इनमें द्वन्द्व समास जानना । प्रतिष्ठा आश्रय को कहते हैं । घन, अम्बु, वात और आकाश ये प्रतिष्ठा-आश्रय जिन भूमियों की है वे घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा कहलाती हैं।