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द्वितीयोऽध्यायः
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औदारिकवै क्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ।। ३६ ।।
औदारिकादिशरीरनामकर्मविशेषोदयजनितान्यौदारिकादीनि शरीराणि । तत्रोदारं स्थूलम् । उदारे भवमुदारं प्रयोजनमस्येति वा श्रदारिकम् । एकानेकाणु महत्त्वादिरूपेण शरीरस्य विविधकरणं विक्रिया । सा द्वेधा - पृथक्त्वैकत्वभेदात् । स्वशरीराद्बहिः पृथक्त्वविक्रिया । स्वशरीर एवैकत्वविक्रिया । सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम् । संशयविषयसूक्ष्मपदार्थ निश्चयार्थमसंयमपरिहारार्थं वा प्रमत्तसंयतेनाह्रियते निर्वर्त्यते यत्तदाहारकम् । यत्तेजोनिमित्तं तेजसि भवं वा तत्तैजसम् । कर्मैव कार्मणम् । कर्मणां समूहो वा कार्मणम् । शीर्यन्त इति शरीराणि । रूढिवशादेतान्यौदारिकादीनि जन्मिनां पञ्च शरीराणि वेदितव्यानि । यच्चाद्यं शरीरं स्थूलप्रयोजनं तर्हि ततोन्यत्कि स्वरूपमित्याह
सूत्रार्थ - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच शरीर होते हैं ।
दारिक आदि शरीर नाम कर्मों के उदय से जो उत्पन्न होते हैं वे औदारिक आदि शरीर हैं । उदार स्थूल को कहते हैं उसमें जो हो अथवा वह जिसका प्रयोजन हो उसे औदारिक कहते हैं । एक-अनेक, छोटा-बड़ा आदि रूप से शरीर को विविध करना विक्रिया है उसके दो भेद हैं पृथक्त्व विक्रिया और एकत्व विक्रिया । अपने शरीर से बाहर होकर विभिन्न आकार धारण करना पृथक्त्व विक्रिया कहलाती है और अपने शरीर को ही दूसरे आकार रूप करना एकत्व विक्रिया है । ऐसी दो प्रकार की विक्रिया जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक है । संशय के कारणभूत जो सूक्ष्म पदार्थ है उसके निश्चय के लिये अथवा असंयम के परिहार के लिये प्रमत्तसंयत मुनि द्वारा जो रचा जाता है वह आहारक है । जो तेज का निमित्त है अथवा तेज में हुआ है वह तैजस है । कर्म को ही कार्मण कहते हैं अथवा कर्मों के समूह को कार्मण कहते हैं । जो शीर्ण होते हैं वे शरीर हैं इसप्रकार शरीरादि शब्दों का रूढ़ि परक या निरुक्ति परक अर्थ है । ये औदारिकादि पांच शरीर संसारी जीवों के जानने चाहिये ।
प्रथम का औदारिक शरीर स्थूल है तो उससे अन्य शरीर किस स्वरूप हैं ऐसी आशंका का सूत्र द्वारा निरसन करते हैं—